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                                           वो  काली ईद 
 इस  बार  मैंने  ईद उल  अज़हा   नहीं  मनाई , न ही  अच्छे  कपडे  पहने और  न  ही  कोई  पकवान  बनाये।  सच तो ये  था की  कोई  खुशी   मनाने  का  दिल  ही  नहीं  चाहा , दिल  चाहता  भी  तो  कैसे ,  मुज़फ्फर नगर  में  मज़हबी  दंगो के  शिकार  हुए  तक़रीबन 12,000  हम  वतनों  की  तो  ये  काली  ईद  थी , जिसे  वो  अपने   घरों  से  बेघर  होकर  राहत  शिविर में,  आँखों  में  आँसू  लिए  मना   रहे  थे.  

 ये  वो ईद है  …. जब  कोई   दंगो में  मरे  अपने भाई को  रो रहा है। … तो  कोई  बाप अपने जवान  बेटे को।  कोई   नई- नवेली  दुल्हन  जिसके सुहाग की मेहदी  भी  फीकी  नहीं  पड़ी  है  वो  इन  दंगो  में   बेवा  होकर अपनी क़िस्मत  को रो रही है. मज़हबी दंगो  में  फैली  नफ़रत में  गैंग  रेप की  शिकार  हुई  उन  मासूम  लडकियों  की  कैसी  ईद , जिनकी  अस्मत  इन  दंगों  की भेंट  चढ़ गयी।   

जब  भी  इस तरह के दंगे होते हैं  तो न तो  किसी हिन्दू कि मौत होती है और न ही किसी  मुस्लिम   की , मौत होती है  तो इंसानियत  की। …  जो सिसक -सिसक के दम तोड़ देती   है। वो   दोस्त  और पड़ोसी   जो रिश्ते दारो से  भी  ज़यादा  क़रीब  हुआ करते   थे , जिनके साथ हर  वक़्त का खाना - पीना , उठना  -बैठना  होता  था अचानक  मज़हबी  नफ़रत  उन्हें एक -दुसरे  के  ख़ून   का  प्यासा  बना  देती है। 
नफरत के  बीज  बोने वाली  सियासी  ताक़तें  आम  लोगो  को  मज़हब  के नाम पर गुमराह  करती है। । लोग  उनकी बातों  में आ जाते  हैं और एक दुसरे  को मारने - मरने  पर  उतार  जातें हैं,  और  फिर खेल शुरू होता है  वोट बैंक का, जिसे सियासी पार्टियां  किसी भी तरह  बढ़ाना चाहती   हैं।

बेहद  दुःख की  बात ये  है  की  दंगो  के दो महीने  बीत  जाने के बाद भी ये परेशान हाल लोग   ऐसे  बदहाल  राहत -शिविरो  में  पनाह  लेने  के लिए मजबूर  है , जहां  बुनियादी  सहुलियते  भी  मुहैया  नहीं कराई गयी है, उनके ज़ख्म  कैसे भरेंगे जब  तक  सरकार की तरफ़ से  उनको  फिर से बसाने   के   पुख्ता  इंतिज़ाम  नहीं किये जायेंगे।  दिल  के ज़ख्म  तो भरने से रहे … कम से  कम  सरकार  उन्हें भरपूर  राहत   तो दे.…  ताकि उनकी रोज़ मर्रा  की  ज़िन्दिगी  फिर  से   शुरू  हो सके. 

 अरशिया  ज़ैदी  































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