memories

एक  बेटी  का  ख़त  अपनी  माँ  के  नाम .... 
                 उनकी  सातवीं   बरसी  पर ..

   मम्मी...   15  जुलाई   2006  को, आज के  ही दिन  शाम साढ़े  पांच   बजे    आप   हम सब  को    छोड़  कर चली  गयी थी। आज  आपकी  बहुत  याद आ  रही है सोंच  रही   हूं  , कुछ  लिखू , लेकिन   क्या  लिखू  आपकी   शख्सियत  के  बारे  में , शान  और तारीफ़   में  ...... जो  कुछ  भी  लिखू गी   ... वो कम होगा .   आप  2002 से  कैंसर  की तकलीफ से  बड़ी  बहादुरी  और  हिम्मत  से जूझ   रही  थी ...  हम लोगो  पर  अपना  दर्द    बिना  ज़ाहिर किये हुए .... लेकिन ये मत समझिये  ...  की हमें  आपकी तकलीफ का  अहसास नहीं था ....  डैडी , मैं , रूफ़ी , गुड़िया , शैली , हम  सब  पूरी  तरह    बा ख़बर थे ... आपके  दर्द   और  बेचैनी से ..

पिछले  दो  तीन  सालों  से   जून - जुलाई  का महीना   आप के  लिए बहुत तकलीफ़   दे    हो जाता था . मुझे  आज  भी वो दिन याद है  जब  27  जून  2004  को आपको  तबियत  बहुत खराब हो गयी  थी .... आपको  इतनी ख़ासी  हो  रही थी की  साँस  लेना  भी  मुश्किल   था  . डैडी   आपको    डॉ  अजय खन्ना  को   दिखाने  ले गए थे . जिन्होंने  आपको   फ़ौरन   दिल्ली   के राजीव  गांधी  हॉस्पिटल   में  ले जाने  की   सलाह  दी थी , क्योंकि   वहीं  से  आपका  इलाज  चल रहा था .

 हम   अगले  ही दिन   यानी   28  जून  2004  को   आपको  इंटरसिटी एक्सप्रेस से  सुबह  5  बजे  दिल्ली  लेकर  आने वाले थे ...  मैं  और  शैली  को तो  रूफ़ी  ने  मोटर साइकिल  से  स्टेशन  पर पंहुचा  दिया  था  और  डैडी   आपको  अहिस्ता- अहिस्ता  दूसरी  मोटर साइकिल से   लेकर  स्टेशन   आ  रहे  थे .  हम  लोग   ट्रेन  पर चढ़ गए थे ... और   कम्पार्टमेंट के दरवाज़े  पर खड़े  हो  कर  आपका  इन्तिज़ार  कर रहे  थे ... ....  आप और  डैडी  हमें  रेलवे  प्लेट फॉर्म  पर कही  दिखाई  नहीं   दिए  .... इतने  में  ट्रेन  रेंगने  लगी ... और फिर  धीरे  धीरे  ट्रेन ने  स्पीड  पकड़  ली .  हम  दोनों भाई - बहन  बे चै नी  से  डैडी  के  मोबाइल फ़ोन   पर   contact  करने की कोशिश  करने लगे .... लेकिन   उसके  सिग्नल ग़ायब  हो  जाने  की वजह  से  डैडी  से हमारा  कोई  कांटेक्ट  नहीं  हो पाया .  इसी कशमकश  में  रामपुर का स्टेशन आ गया .  उस  वक़्त   किसी अनहोनी  के   डर  से  हम  लोगों  का   दिल   कांप   उठा   जब  हमें   रुफी   ने  फ़ोन  पर  बताया  की "वो  भी  स्टेशन  पर  मम्मी- डैडी को ढूँढ  रहा है ... उसे  भी मम्मी -डैडी  कही  दिखाई  नहीं दे   रहे  हैं ".

   हमने   राहत   की सांस  उस वक़्त  ली  जब  डैडी का  ख़ै रि यत का   फ़ोन आया  .... उन्होंने  बताया की जब वो   आप   को लेकर    प्लेटफार्म -3 पर  आने के  लिए  पुल  पर  चढ़  रहे थे , तभी   आपकी   साँस  उखड़ने  लगी थी .... ऐसा   लग रहा था  की  आपको    उसी  वक़्त  कुछ हो न जाए। .... इसलिए  डैडी  ने आप को  वही  बैठा दिया   और ट्रेन   सामने से निकाल गयी .मम्मी ...."डैडी  पर वो  वक़्त कैसा  क़यामत की तरह गुज़रा होगा  है - न।"  

शैली रामपुर से आपको अगले दिन  दिल्ली लाने के लिए लौट  गया  और मैं   दिल पर  बोझ  लिए   दिल्ली  चली गयी। 2 9  जून 2004 को  आप  शैली  से साथ  आने  वाली थी ...  मैंने  अपने छोटे से फ्लैट को  आप  के लिए  तैयार कर दिया था ..... मेरी वो रात  बड़ी बेचैनी  से कटी थी ... एक अजीब सा डर   लग  रहा था मुझे ,  ख़ैर   किसी तरह  रात कटी  .... सुबह  दस  बजे  आपकी  ट्रेन  आने वाली थी .इस लिए  मैंने    सुबह  जल्दी - जल्दी   घर का  काम ख़त्म  किया ...  और  आपको   स्टेशन पर  receive  करने   निकल  गयी  आपको  surprise  देना  चाहती  थी मैं . ... जब मैं   नई - दिल्ली  स्टेशन पर पहुची तो   पता चला की   ट्रेन  आ चुकी   है  ....  मुझे वक़्त पर पहुचने में  देर हो चुकी थी .... खैर मैं भागती - दौड़ती   उस प्लेट फॉर्म पर पहुच गयी जिस पर  आपकी  ट्रेन  आयी  थी .  रास्ते  में  शैली  मिल गया   उसने बताया की " अप्पी  तुम  मम्मी के पास जाओ . मम्मी  आगे  वाली सीट  पर बैठी हैं। मैं  व्हील  चेयर  लेने जा रहा  हूँ ....."

मेरी नज़रे  चलते -चलते   आप को  ढूंढ    रही थी अचानक  मेरी नज़र  आप पर  पड़ी , .आप पिंक कलर की  साड़ी  पहने   हुए   एक सीट  पर बैठी हुई हैं।   मम्मी,  आप  इतनी तबियत  ख़राब  में भी  बेहद  ख़ूबसूरत  लग रही थी .  जैसे ही आपने   मुझे देखा  और  मैं  आपके  पास गयी .. आप मुझसे  चिपट  कर रोने लगीं एक  मासूम  बच्चे  की तरह. ...    मैंने  आप को  कस  के अपनी  बाहों  में  समेट  लिया था ,   दिल चाह  रहा  था की  क्या कर दू .. आप  की  तकलीफ़  दूर  करने के लियें . वो वक़्त ... वो लम्हे  तो नक्श  हैं  मेरे  दिल पर।

 मैं जानती थी की  ..  सुबह - सुबह आते वक़्त  आपसे  कुछ  खाया  नहीं गया  होगा .  जब  मैंने आपसे  पूछा ... "मम्मी आप कुछ  खायेंगी   तो आपने  हाँ  में सर हिल दिया था ... एक मासूम बच्चे की तरह ...". मैंने जल्दी से  आपके  लिए एक चिप्स का पैकेट  और  कोल्ड  ड्रिंक  खरीदा  , और  आपके  पास  बैठ  कर आपको   खिलाने  लगी ....आप आहिस्ता  -अहिस्ता  खाने  की  कोशिश  कर रही  थी   आपको,  खाते  देख कर  बहुत तसल्ली  मिल  रही थी .

   शैली   बिना व्हील  चेयर  के  वापस आ गया .... उसने बताया   कोई  भी  कुली   हमारे प्लेट फॉर्म तक  व्हील   चेयर लाने  को  तैयार नहीं हो रहा था . अब   मुश्किल  ये थी  की   आपको  इतना लम्बा  रास्ता कैसे  तय  करवाया जाए  क्योकि  कई  प्लेट फॉर्म  के   पुलों  को क्रॉस करना था  ....   एक और कोशिश करने के इरादे से   मैंने  शैली  से  कहा की .... "अब तुम मम्मी के पास बैठो ...  मैं भी कोशिश कर  के  देख  लेती हूँ ".

 शुरू  में  मुझे भी कोई  कुली नहीं  मिला .... और   जो मिले  वो इतनी  दूर  हमारे पलट फॉर्म तक आने को राज़ी नहीं हो रहे थे .... फिर वहाँ  मैंने  तैनात पुलिस  की मदद ली और उन्हें   सारी   बात बताई .... उन्होंने  मेरी  मदद  की  और उस  रूम  में   भेजा जहां   व्हील चेयर   मिलती  है  .  मैंने  वहाँ  पहुच  कर   authorities  से   ना  सिर्फ  शिकायत की  बल्कि  उनके खराब  इन्तिज़ाम के लिए उन्हें खूब  खरी - खोटी  भी  सुनाई। उन्होने  बिना देर  किये  हुए   व्हील  चेयर  मुहैया  करवा  दी .
   
ये  सब  इंतजाम करते -करते  मुझे  काफी देर हो गयी  थी  .जल्दी -  जल्दी   कुली  के साथ व्हील  चेयर   लेकर  आपके  पास   पहुची   और हम  लोग   आपको  व्हील  चेयर  पर  बैठा  कर   स्टेशन  के बाहर  ले आये .  और वहाँ से  सीधे   आपको  राजीव  गाँधी  हॉस्पिटल  ले गए .

उन  दिन   हम  लोगो को  इम्तिहान  पर इम्तिहान  देना था ,  आपकी  तबियत  बिगड़  रही थी , और आपकी   डॉक्टर,  डॉ  कटारिया  छुट्टी पर थी   इसलिए   दूसरे   डॉक्टर ने  आपको    देखा था . ....  इस  डॉक्टर का  नाम  तो  मुझे  याद नहीं   लेकिन उसका  चेहरा  मुझे   आज 8  साल  के  बाद  भी  याद है .   बहुत insensitive  था वो डॉक्टर,  और  बहुत rudely behave   कर  रहा था   ऐसा लग रहा था  की जैसे  उसे  मरीज़  की  तकलीफ़  का ज़रा  भी  अहसास  नहीं   . हम लोग   मम्मी  की  तकलीफ   बयान करने के लिए  बेताब थे ... और  वो  डॉक्टर  हमें अपनी बात भी नहीं  कहने दे रहा था ....  और बार - बार  one  by one , one by one  कह के  रोक देता था .
 इस डॉक्टर  ने  आपके  कुछ टेस्ट  करवाए .थे  जिसकी  रिपोर्ट  हमें  कुछ ही  देर में  मिल गयी  .  इस  डॉक्टर  ने  रिपोर्ट देखते  ही  बड़े  ठंडे  लहजे में कहा .... "की अब पेशेंट  में कुछ नहीं बचा है ... ज्यादा से ज्यादा  तीन  महीने की जिंदिगी  और है।"
... ये सुन कर  हम  दोनों  भाई  - बहन के  तो होश  ही  उड़  गए।  जो डॉक्टर  ने कहा   उसका  हमें  ज़रा भी गुमान  नहीं था . मम्मी .... हम  आपको किसी  भी क़ीमत   पर   खोने  को तैयार  नहीं थे .मेरा दर्द तो आंसू बन  कर   छलक  गया था आँखों से   ... लेकिन  आपके शैल  ने अपने  ज़ज्बात  को  फिर  भी काबू  में  रखा .  उसने  बस इतना ही कहा की ... "अप्पी  मुझे ऐसा  लग रहा है की  जैसे आस पास खड़े  लोग  slow  motion  में हो गए है .... दिल सा  बैठ  गया था  उसका ."

 आप  के सामने हम  रो नहीं सकते थे ...और आँसू  रुकने का  नाम नहीं  ले रहे थे . खैर किसी तरह हम  आपको  घर ले आये . अपना फ्लैट  11nd floor  पर था   और  आप  इतनी    सीढ़ियाँ चढ़  नहीं  सकती  थी . उस  वक़्त  आपके बेटे  शैली  ने  बड़े  प्यार  से  आप  को  गोद में उठाया  और   घर में ले जाकर  बिस्तर  पर  लिटा दिया  .   उस वक़्त हम दोनों   बहुत रोना चाहते थे ... लेकिन आप के सामने नहीं ,  मैं  घर का कोई  कोना तलाशती रोने के लिए और शैली घर  से  बाहर  जाता .....  रोकर अपना दिल हल्का करने के लिए . वो मेरे सामने  भी नहीं  रोना चाहता था 

उन  दिनों  आप को   खांसी  का  ज़बरदस्त अटैक  सा   होता   था  जिसे सुन  कर  हम लोगो का दिल दहेल जाता था . Lungs   में  पानी  भर  जाने  की   वजह से  आपका  दो  क़दम  भी चलना  दुश्वार था ,आपकी सांस  चलने  लगती थी  उस वक़्त  मैं और   शैली एक - दुसरे को  बड़ी   बेबसी  से  देखते ,   ऐसा लगता  की हर खांसी के अटैक के साथ   मम्मी   मौत  के   एक  क़दम  और नजदीक  आती  जा  रहीं है . शैली बेचैन  हो  मुझ  से कहता ....    "अप्पी ... ख़ुदा  से  दुआ मांगो. शायद  हमारी मम्मी को दुआएं लग जाएँ और वो ठीक हो जायें".
  
जुलाई   की   सख्त  गर्मी   आपको  और  ज्यादा  परेशान  कर  रही थी ....ऊपर  से आप  कुछ  खा  भी नहीं पा रही थी ...  सिर्फ  एक चीज़  के अलावा ....वो  था  कस्टर्ड  वनिला  फ्लेवर . एक  यही चीज़ आप ख़ुशी से खा  पा रही थी . मैं रोज़ आप  के लिए  खूब   सारा कस्टर्ड  बना देती   , मुझे   कम से कम इस बात का सुकून तो  था की आप  कुछ  तो खा  पा  रहीं  हैं . 

 यूं  तो डॉक्टर  ने  आपकी  जिंदिगी सिर्फ 3  महीने  बताई थी , लेकिन   कुछ    दूसरे  टेस्ट  करवाने  के लिए भी   कहा  था ...क्योंकि  सही हालात  का पता  इन  सारी टेस्ट  रिपोर्ट  आने के बाद ही  चलता . इसी   वजह  से हमारे लिए  अभी एक उम्मीद  की   किरन   बाक़ी थी . हमें आपकी   फाइनल  रिपोर्ट का इन्तिज़ार था  इसलिए हमने  अभी तक डैडी को  तो कुछ नहीं बताया था . वो हमसे बार - बार पूछते   और  हम यही  कहते ,  की ... मम्मी   ठीक है . लेकिन  वो आखिर हमारे डैडी है  और हम हैं उन के बच्चे ...  कही न कही उन्हें थोडा सा शक  सा था ... की  कोई  सीरियस  बात  है .  

 रूफ़ी   को  हमने  सारी  बात  बता दी थी  वो   अगले ही दिन  आ गया था ,  अब   मैं  अकेली  नहीं थी  मेरे दोनों भाई  मेरे  साथ थे . उसके  आते  ही   मुझे  और शैली को बड़ी  राहत  और सुकून मिला।  फाइनल  रिपोर्ट्स  रुफी ने अपने हाथ से ली ... बड़े भरी  दिल  से .... जब वो रिपोर्ट ले रह था  तब उसके हाथ  काँप रहे थे  सारी रिपोर्ट्स एक  ही बात  कह   रही थी ...की  आप  का साथ  हमसे  छूटने वाला  है अब ज्यादा दिनों तक हमारे साथ नहीं रहेंगी . अब डैडी से  और  नहीं छुपाया जा सकता था ... इसलिए   उन्हें  सारी  बात बता दी गयी .  जिस पर डैडी   ने  रूंधे  गले  से  बस इतना  ही  कहा .... की  "तुम लोग डॉक्टर   से  मम्मी का सारा मेडिकेशन प्लान करवा लो  और उन्हें  घर ले आओ ... अब तुम्हारी मम्मी को मैं अपने  पास ही  रखूँगा ... और उनका सारा ट्रीट मेंट यही से होगा ."

 हम   आप  को लेकर  सुबह  तीन  बजे  घर पहुचे  होंगे,   डैडी  जाग  रहे थे ... उन्होंने  जल्दी  से  गेट   खोला और  आपको  बड़े  प्यार  से सहारा देकर   अपने  बेड  रूम  तक पहुचाया ... डैडी  के पास  आकर आप  बहुत ख़ुश  थी  और आप की तबियत भी पहले से  ज्यादा बेहतर  लग रही  थी ..
अगले दिन  उम्मीद की एक   नई  सुबह थी .... हम सब के लियें ...जिसमे  डैडी ने  आप  से  ये वायदा  लिया की   आप को  जीना  है  उन के लिए ...  और  हम  सब  बच्चों  के  लियें ... डैडी की  बातो  से  आपको  बहुत motivation  मिला , उनकी  बातों  ने पता  नहीं  आप पर क्या जादू किया की   आप   कुछ  देर के लिए  अपना सारा   दर्द   और  तकलीफ  भूल   गयी।  आपने   हाथ  उठा  जोश  से कहा ..." हाँ  मुझे जिंदा रहना है ... मैं  जिऊंगी ... तुम्हारे  लिए और अपने बच्चों  के  लियें "

 एक  बार   फिर   आपको  बचाने  के लिए हर मुमकिन  कोशिश  की जाने लगी ....एक बार फिर कैंसर  से लड़ने और  जीने के लिए  कमर  कस के  आप तैयार हो  गयीं थी  .   दवा  और दुआ दोनों ने  मिल  कर काम किया  . आपकी  तबियत  धीरे- धीरे  सभालने  लगी .राजीव  गाँधी  हॉस्पिटल के   medication  प्लान  के मुताबिक   आपका  ट्रीटमेंट  तो  हो  ही  रहा था।  ज़का  मामू  ने  लखनऊ  से मशहूर  होम्योपैथिक डॉक्टर  डॉ   बत्रा का  ट्रीटमेंट भी   शुरू  करवाया।    बत्रा  क्लिनिक से  आपके  लिए फ़ोन  आता , डॉक्टर  आपसे  बड़ी  तसल्ली   से  लम्बी  बात करती .... और मर्ज़ को समझती .... फिर  by  courier   आपकी    homeopathic दवाएं  भेज   देतीं . आप  उन्हें  टाइम  पर लेती रहती . 

मम्मी ... मुझे  लगता  है की  आपको डॉक्टर  बत्रा   की होम्योपैथिक  दवाओ  ने बहुत   फायदा  किया , कुछ की दिनों   में आपकी   खांसी तो जैसे गायब हो गयी ....   Time   to  Time   आपके  टेस्ट  होते ... और आपकी    सारी  रिपोर्ट्स  ठीक  आती . ऐसा  लगता था की  कोई  चमत्कार  हुआ  है  और  घर की  खुशियाँ  वापस आ गयीं  हैं .

 डॉक्टर  ने  कहाँ  आपकी  जिंदिगी  सिर्फ  3   महीने  बताई थी  लेकिन  उसके  बाद   आप  तीन साल  और हमारे साथ  रहीं ...  और  एक सेहत मंद जिंदिगी जी . अपने हाथो से 4  december 2004 को  मेरी शादी की ,  सब  कुछ अपने हाथो से किया , यहाँ  तक की,   सूजी   और  कटे  मेवे से तैयार होने वाली  पीडीयां  भी किसी  और  से  न बनवा  कर  अपने हाथों  से बनायीं  और  सारी  रस्मे   बड़ी  ख़ुशी  - ख़ुशी   अदा  की।
 मम्मी  आज  आप  physically   हमारे  साथ नहीं  है ... लेकिन  हर  लम्हा ... हर सांस   में  आप हैं 
आपकी  बेटी
 अरशिया  ज़ैदी (  रेनी ) 

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                           एक याद बचपन की

  आज कुछ फुरर्सत के लम्हे मेरे पास हैं .....सोच रही हूँ की यादो के झरोको से अपने बचपन में झाँकू .... बचपन में झाकते ही कई खट्टी-मीठी यादें,किसी किताब के पन्नो की तरह मेरी नजरो के सामने से गुज़रने लगती है.एक यादगार पन्ना, जहां आकर मेरी सोच कुछ ठहर सी जाती है ,और मुझे उस वक़्त में वापस ले जाती है जब मैं तक़रीबन दस साल की और मेरा भाई रुफी आठ साल का रहा होगा.

हर भाई-बहन की तरह हम भी बहुत झगड़ा करते थे.बात तू-तू मै-मै से शुरू हो कर अक्सर मार-पिटाई पर जाकर ख़त्म होती थी.मेरा प्यारा शैतान-भैया रुफी जो उम्र में मुझसे दो साल छोटा ज़रूर था लेकिन हर बार बाज़ी मार ले जाता था.हमारी लड़ाईयों से अगर कोई सबसे ज्यादा परेशान था .... तो वो थीं हमारी मम्मी.वो मुझे बार बार भइया से दूर रहने और लड़ाई न करने की हिदायत देती लेकिन मैं उनकी एक न सुनती.....और बार-बार झगड़ा करने के बाद भी अपने भैया के आस-पास ही रहना पसंद करती .... शायद इसलिए .....की मुझे उसके बिना ज़रा भी चैन नहीं था और मैं  उससे ज्यादा देर तक नाराज़ भी नहीं रह सकती थी. 


एक शाम  ... घर में सब लोग किसी पार्टी में जाने की तैयारी कर रहे थे. मम्मी ने हमेशा की तरह मुझे और रुफी  को पहले ही तैयार कर दिया था.खेल-खेल में हम दोनों की लड़ाई हुई और बात घूसों-लातो तक पहुच गयी.उस लड़ाई में मेरा पडला भरी रहा और मैने रुफी की पिटाई कर ली.
 
 मैं जानती थी कि मेरा नटखट  भैया मुझसे बदला ज़रूर लेगा,क्योंकि अक्सर ऐसी लडाई के बाद वो मुझे मारने भागता.... और मैं जल्दी से कमरे में जाकर छुप जाती,दरवाज़े को अंदर से बंद कर लेती....इस पर उसे और भी  ज़्यादा गुस्सा आता था.वो ज़ोर-ज़ोर से दरवाज़े को धक्का देकर दरवाज़ा खोलने की  कोशिश करता  .... जब कभी  दरवाज़ा नही खुल पाता तो वो मुझे बहकाने के लिए  झूट-मूठ कहता...

 "अरे मेरी उंगली पिच गयी".जल्दी से दरवाज़ा खोलो." और मैं  झट से दरवाज़ा खोल देती...(इस डर से,कही सच में उसकी उंगली न पिच जाये) और दरवाज़ा खोलते ही रुफी को अपने सामने,शरारत से मुस्कुराता हुआ खड़ा पाती और फिर तो,मेरी ख़ैर नहीं होती थी.


उस दिन भी कुछ ऐसा  ही हुआ था .... दरवाज़ा बंद रखने के लिए मैंने  अपने दोनों हाथो की ताक़त लगा रखी थी ....दरवाज़े पर लगी चटख़नी भी कमज़ोर थी. 2-3 बार जोर से धक्का देने पर खुल जाती थी.उधर दरवाज़ा न खुल पाने की वजह से रुफी का गुस्सा बढ़ता ही जा रहा था ....वो दरवाज़े को जोर जोर से धक्का दे रहा था.अचानक उसने चिल्ला कर कहा .... " मेरी उंगली पिच गयी"....रेनी जल्दी से दरवाज़ा खोलो "..मैंने दिल ही दिल में सोचा ....
"अच्छा बच्चू....फिर एक बार तुम  मुझे बेवकूफ़ बना रहे हो  .....लेकिन इस बार मैं  तुम्हारी  बातो में नहीं आने वाली".
ये सब बातें दिल ही दिल में सोचते हुए मैंने और कस के दरवाज़ा बंद कर लिया.


अभी मैं अपने ख़यालो में उलझी हुई थी की,बाहर से मेरी अतिया फुप्पो  की आवाज़ आयी ....."रेनी जल्दी से दरवाज़ा खोलो....... रुफी की उंगली सच में, दरवाज़े के बीच में आ गयी है ."ये सुनते ही मैंने झट से दरवाजा खोल दिया और सामने  जो देखा......उसे देख कर मेरे तो होश उड़ गए  ....मेरा प्यारा भैया दर्द से बेहाल हो रहा था,उसका भोला-भाला मासूम चेहरा आँसूओ से तर था.उंगली से बुरी तरह खून बह रहा था,खाल आपस में चिपक गयी थी और नाख़ून उंगली से अलग हो चुका था. 
इतने में शोर सुन कर मम्मी बाहर आ गयी,और रुफी की यह हालत देख सन्न रह गयी ...लेकिन जल्दी ही उन्होंने खुद को सभाल लिया.बिना घबराये रुफी के हाथ पर डिटोल लगा कर पट्टी बाधी और मुझे पड़ोस में रहने वाले अज़ीज़ मामू को बुलाने भेज दिया.


अज़ीज़ मामू एक बेहद नेक दिल और हमदर्द इंसान थे,जिन्हें हम प्यार से 'मामू' कहते थे.मैने जल्दी-जल्दी उन्हें सारी बात बतायी.वो घर आ गए और रुफी को फ़ौरन डॉक्टर चड्डा के पास ले जाकर  मरहम पट्टी करवा दी.
    घर में सब मुझसे बेहद नाराज़ थे.उसके बाद जो मेरी क्लास लगी है...उसके बारे में क्या बताऊ ? रुफी हमारे ताया-जानी(बड़े अब्बा) का बहुत लाडला भतीजा था. अपने लाडले की ये हालत देख कर ताया-जानी को मुझ पर बहुत ग़ुस्सा आया था ... मुझे अभी भी याद है ... उस वक़्त वो कघी से अपने बाल बना रहे थे... जैसे ही उन्होंने मुझे देखा... उन्हें और ग़ुस्सा आ गया और उन्होंने उसी कघी से मेरी पिटाई कर दी थी,उस बेचारे कंघे को भी थोड़ी बहुत चोट आयी थी और वो टूट गया था. 
ऐसा लग रहा था की शायद भेड़िया आया-भेड़िया आया,वाली कहानी सच हो गयी थी.खेल ही खेल में एक बड़ा हादसा हो गया था,जिसकी वजह से मेरे भैया को बहुत दर्द सहना पड़ा था.जो कुछ हुआ वो अनजाने में हुआ ... लेकिन बेहद बुरा हुआ था.. 


रुफी की उंगली को ठीक होने में कई दिन लग गए थे...उसकी उंगली तो ठीक हो गयी लेकिन उस उंगली पर पूरा नाख़ून कभी न आ सका.जिसको देख कर आज भी मुझे अफ़सोस होता है..
अरे आप किस सोच में डूब गए ....क्या आप को भी अपने बचपन की कुछ शरारते याद आ गयी ? अगर आप ये सोच रहे है कि इस हादसे के बाद   हम सुधर गए होंगे और हमने झगड़ा करना बंद कर दिया होगा ... तो आप गलत समझ रहे है.उसके बाद भी हम झगड़ा करते रहे..... आज भी करते है लेकिन थोड़ी तमीज़ से !!!
 अरशिया  ज़ैदी

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                                      उम्मीद



26 जून 2011की बात है.दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया में National Eligibility Test(NET) के exam में मेरी ड्यूटी लगी हुई थी.मैं कंट्रोल रूम में authorities से instructions मिलने का इन्तिज़ार कर रही थी, इतने में एक 26-27 साल का नौजवान कमरे में दाखिल हुआ,गोरा रंग, दरमयाना क़द,चेहरे पर हलकी सी दाढ़ी,और self confidence से दमकता चेहरा..... ब्लू कलर की शर्ट और स्काई ब्लू कलर की जींस पहने इस लड़के ने कंधे पर एक rucksack बैग डाल रखा था .


      कमरे में आकर उसने कहा "मेरा नाम मोहम्मद आतिफ है प्लीज़ मुझे मेरा रूम नंबर बता दीजिये.( फिर थोडा रुक कर)am a person with special needs.मैं ठीक से पढ़ नहीं सकता, मेरी आँखों की रौशनी सिर्फ 40% है .क्या आप मुझे एक writer भी available करा देंगे?"ये कहते हुए उसने अपने हाथ में पकड़ी लम्बी सी अलमुनियम की छड़ी को कस कर दबाया.


Authorities ने मेरा नाम पुकारा और मो.आतिफ का टेस्ट पेपर और आंसर शीट पकडाते हुए इस student के साथ रूम नंबर-5 में जाने को कहा.

रूम नंबर-5 दूसरी मंजिल पर था,जिस पर सीढ़ीयो से जाना था.आतिफ ने बिना मेरी मदद लिए, आहिस्ता-आहिस्ता खुद सीढ़ीया चढ़ी.पेपर शुरू होने में सिर्फ15 मिनट बाक़ी थे.उसने फुर्ती से अपना बैग खोला और एक एक्सटेनशन कॉर्ड ,टेबल लेम्प, बहुत मोटे लेंस का चश्मा,ब्लाइंड स्टिक और Magnifying lense निकाल कर मेज़ पर रख दिया ... फिर मुझसे पूछा.......
              
''क्या यहाँ कही Extension cord लगाने की लिए socket है? मुझे टेबल लेम्प का प्लग लगाना है कमरे में रौशनी कम है ... मुझे ठीक से दिखेगा नहीं." 

मैंने इधर उधर देखा,स्विच बोर्ड मुझे कही नज़र नहीं आया,किसी fault की वजह से AC भी नहीं चल रहा था.इसलिए गर्मी की वजह से हाल और भी ज़्यादा बेहाल हो गया था.शिकायत करने पर बिजली वाला आया लेकिन वोAC की fault नहीं ढूढ सका हाँ उसने इतनी मेहरबानी ज़रूर की कि उसने हम लोगो को,उसी हाल नुमा कमरे के दूसरे हिस्से में बैठा दिया जहांACचल रहा था.
   

 यहाँ आते ही गर्मी से थोड़ी राहत मिली. मैंने जल्दी जल्दी उसका सामान दूसरी टेबल पर रखवा कर टेबल लेम्प का प्लग सामने लगे सोकेट में लगा दिया.आतिफ ने मुस्कुरा कर थैंक्स कहा और मुझसे अपनी Answer sheet  में उसका नाम,रोल नंबर वगेहरा भरने की request की.आतिफ का admit card देख कर मैंने उसकी सारी details कॉपी में भर दी.इन सारी formalities को पूरा करने में15मिनट और लग गए.पेपर शुरू हो चुका था और आतिफ ने पेपर लिखना अभी शुरू भी नहीं किया था.
        

पहला पेपर objective question-answer का था.आतिफ ने कहा 
"मैम आप पहले मेरे लिए question पढ़ें  और फिर नीचे लिखे उसके answer,मैं जो answer बताऊ  ... आप उसे  आंसर शीट में टिक कर दीजिये.''


मैं उसके लिए invigilator/writer दोनों की तरह काम कर रही थी.वो मुझे आंसर  बता रहा था और मैं टिक करती जा रही थी.कई बार तो वो मेरे आंसर  के obtions पढने से पहले ही झट से जवाब  बता देता,फिर चाहें वो सब्जेक्ट General-knowledge का हो,Reasoning का हो या फिर हो English,हर Subject की उसने ज़बरदस्त तैयारी कर रखी थी.वो भी आँखों के साथ दिए बिना! उसने15 min.देर से पेपर शुरू करने के बाद भी तय वक़्त में पेपर पूरा कर लिया था.जो वाकई क़बीले तारीफ़ था
        

 पहले पेपर के बाद एक घंटे का ब्रेक था.मैंने आतिफ से पूछा कि

 "क्या आप 2nd पेपर शुरू होने तक यहीं रूम में बैठ कर इन्तिज़ार करेंगे"?

 "नहीं मैं इस ब्रेक में सबसे पहले मस्जिद जाऊँगा,नमाज़ पढूंगा तब कुछ खाऊँगा"उसने मुस्कुरा कर जवाब दिया. 
  
M.Com में गोल्ड मेडलिस्ट रह चुका ये लड़का अब P.hd कर रहा था न  वो मायूस था और न ही हताश .... बस थी तो कुछ बन जाने की लगन और जूनून.उसका ये Never Give Up वाला positive attitude कही न कही मुझे भी inspire कर रहा था.
   
 2nd paper descriptive था जिसमे लम्बे answers लिखने थे.उस वक़्त आतिफ को देख कर मैं यही सोच रही थी की अब ये कैसे लिखेगा लम्बे answers! . ..मुझे ही लिखने होंगे....तेज़ी से.अभी मैं अपने सवालो में ही उलझी थी कि मैंने उसको एक magnifying lense लगा कर पेपर पढने की कोशिश करते हुए देखा. 

"इस से मेरी नज़र का धुंधलापन कुछ कम हो जायेगा और आसानी से पेपर लिख लूँगा" मेरे अनकहे सवाल का जवाब देते हुए उसने कहा.फिर  बेहद मोटे लेन्स का चश्मा अपनी आखों पर चढ़ा कर मुझसे सवाल पढने को कहा.

मैंने आतिफ को question पढ़ कर सुनाया जिसे उसने दोहराते हुए समझने की कोशिश की फिर दोबारा मुझसे सवाल पढ़ने को कहा,इस तरह मैंने उसके हर सवाल को रुक-रुक कर कई-कई बार पढ़ा.सवाल को अच्छी तरह समझने के बाद उसने कॉपी खोलते हुए मुझसे पूछा...

."मैंम कॉपी के पेज पर लाइन कहा से शुरू हो रही है".

मैंने उसकी उंगली पेज की लाइन पर रख दी....उसने पूरे पेज को हाथ से छु कर अंदाज़ा लगाया. 

फिर अगला सवाल किया-"एक answer लिखने के लिए कितने पेज की जगह दी गयी है"?और मेरे बताते ही बिना देर किये उसने तेज़ी से लिखना शुरू कर दिया.

आम तौर पर लोगो की hand writing जल्दी जल्दी लिखने में अक्सर टेडी मेढ़ी और गन्दी हो जाती है. मुझे इस बात की curosity थी की कि आतिफ कैसे लिखेगा? ...और ये देख कर मैं हैरान रह गयी की वो बड़े आराम से लिख पा रहा था.उसकी handwriting शुरू से लेकर आख़िर तक एक सी थी,एक दम साफ़-सुथरी, ना तो कोई लव्ज़ लाइन के बाहर निकला था और न ही कोई लाइन टेढ़ी -मेढ़ी हुई थी.
  

  आतिफ लिखते-लिखते बीच-बीच में टाइम भी पूछता जा रहा था ताकी पेपर छूटे नहीं  ...वो सर झुकाए तेज़ी से लिखता जा रहा था.और बीच-बीच में बातें करके अपना दर्द भी बांटता जा रहा था.
     
"मैम मेरी नज़र बचपन में कमज़ोर नहीं थी पर धीरे धीरे कमज़ोर होने लगी और चश्मा लग गया फिर कुछ वक़्त के बाद चश्मे से भी दिखना बंद हो गया,अब मैं magnifying lense से पढ़ता हूँ.मेरी इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है ... इस बीमारी में नज़र धीरे धीरे कमज़ोर हो जाती है और कुछ वक़्त के बाद पूरी तरह से दिखना  बंद हो जाता है"
ये कह कर उसने एक आह भरी और चुप हो गया ..... कुछ लम्हों तक माहौल में ख़ामोशी की बर्फ सी जमी रही......

 फिर कुछ देर बाद उसने ख़ामोशी तोड़ते हुए आगे बताया   .... 
   
 "पता है मैम,मेरे 'सर' जिनके अंडर मैं Phd कर रहा हूँ उन्हें भी same problem है मेरी तरह .... अब उन्हें दिखाई देना बिलकुल बंद हो गया है मेरे साथ भी ऐसा ही होगा.पर सोचता हूँ कि तब-तक मैं settle हो जाऊ.Net का इम्तेहान तो मैं पहले भी पास कर चुका हूँ अब दुबारा Junior Research fellowship(JRF) के लिए ये exam दे रहा हूँ ... ताकि मुझे scholarship  मिल सके और मैं आगे की पढाई कर सकू. .."
 मैं दुःख और बेबसी से उसकी दर्द भरी दास्तान सुनती जा रही थी. मेरे पास लव्ज़ नहीं थे जिनसे मैं उसको तसल्ली देती ....और अगर तसल्ली देती भी तो क्या कहती ?
    

 ये पेपर भी उसने तय वक़्त में पूरा कर लिया.कॉपी मुझे दे कर उसने  धीरे धीरे एक-एक करके अपना सामान बैग में रखा और हम नीचे आ गए.जब मैं उसकी कॉपी जमा कराने कंट्रोल-रूम जाने लगी तो उसने कहा....

"मैम आपने मेरी अच्छी help की.पूरे question paper को अच्छी तरह से explain किया ... प्लीज़ आप मेरे लिए दुआ करिएगा कि मैं इस एक्साम  को पास कर लूं."

मैंने मुस्कुरा कर"आमीन" कहा ... और कंट्रोल रूम की तरफ बढ़ गयी.
अरशिया  ज़ैदी
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                                         पार्क 




 जिंदिगी के सफ़र में कुछ खुशनुमा यादें ऐसी होती है जो हमेशा हमारे साथ रहती है.मेरी,ऐसी ही एक याद उस पार्क से जुड़ी  हुई है,जहां मैं रोज़evening walk के लिए जाया करती थी,वहां बाक़ी लोगो के अलावा,आस पास की झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले गरीब बच्चे भी municipality के नल से पीने का पानी भरने आया करते थे.इन बच्चो में,किसी के तन पर पूरे कपड़े नहीं थे तो किसी के नन्हे पैर बिना चप्पल के थे ... लेकिन फिर भी,उनके माथे पर शिकन का  नामो- निशान  नहीं था.




पार्क में आते ही,ये बच्चे सबसे पहले अपने साथ लाये छोटे- बड़े डिब्बो को एक किनारे रख देते और दौड़ कर झूले पर चढ़ जाते....झूला झूलते,फिर पकड़न-पकडाई खेलते हुए एक दुसरे के पीछे भागते रहते. शाम ढलने से पहले,अपने साथ लाए डिब्बो में नल से,पीने का पानी भर के अपने घर ले जाते.जो डिब्बे पानी के वज़न से भारी हो जाते,और जिन्हें उनके छोटे- छोटे हाथ नहीं उठा पाते तो वो उन्हें घसीट कर अपने घर ले जाने की कोशिश करते थे .    







एक दिन पार्क में टहलते हुए मेरी नज़र इन बच्चो पर पड़ी ... मैंने देखा कि एक रिक्शा ठेला, जिस पर,इन बच्चो ने कई पानी से भरे छोटे-बड़े डिब्बे रख लिए है .... और वो ठेला ढलान भरे गेट से नीचे नहीं उतर पा रहा है.इन्ही बच्चो में से एक 8-10 साल का लड़का,उस रिक्शा ठेला को पार्क के ढलान भरे रास्ते से उतारने की कोशिश कर रहा है और पीछे से नन्हे नन्हे 5-6 बच्चे उस रिक्शे को धक्का लगा  रहे है ... मैं जल्दी से गयी और 'रिक्शा ठेला' को उस ढलान भरे रास्ते से उतरवा दिया ..... बच्चे मुस्कुरा दिए और   "थैंक यू आंटी" कह कर चले गए .

अब इन बच्चो को जब भी मदद की जरूरत होती .... वो मुझे आवाज़ लगा देते ....कभी कहते कि"आंटी... मेरा डिब्बा... ठेले पर रखवा दो" .......
तो कभी कहते कि आंटी ....."ठेला ढलान से नहीं उतर पा रहा है ..... आ कर धक्का लगवा दो न".

इस तरह अब हमारी अच्छी-ख़ासी जान-पहचान हो गयी थी.
उस पार्क के सामने 'सबका बाज़ार' नाम का एक किराना स्टोर था जहां से मैं अक्सर घर की ज़रुरत का सामान खरीदा करती थी.इसलिए  कभी-कभी अपने साथ एक छोटा सा पर्स भी ले जाती थी.एक दिन उन्ही बच्चो में से, एक नन्ही से लड़की ने मेरे हाथ में पर्स देखा तो कहने लगी .....
 'आंटी पैसे दो न' ....'आंटी पैसे दो न' ... 

और ये कह कर मेरे पीछे पीछे चलने लगी ...... मैंने भी चलते चलते उसे जवाब दिया.


"नहीं अच्छे बच्चे पैसा नहीं मागते,हाँ .....अगर तुम्हे कुछ चाहिए तो बताओ .... मैं  तुम्हे खरीद दूंगी".

अभी हमारी बात-चीत चल ही रही थी कि उस लड़की के बाक़ी साथी भी आ गए .... और बड़े ग़ौर से हमारी बात सुनने लगे  ...... क्यूंकि मुझे उन की फरमाइश पूरी करनी थी इसलिए मैंने वहां खड़े सभी बच्चो से मुख़ातिब होकर उनसे अपनी फरमाइश बताने को कहा ....
अब इन बच्चो ने शर्माना शुरू कर दिया...  मेरे काफी पूछने पर इनमें से कुछ बच्चो ने तो"मैदा की बनी मठरियां" खाने की फरमाइश की लेकिन  कुछ बच्चे अभी भी खामोश खड़े थे ..... शायद कुछ कहना चाह रहे थे लेकिन झिझक की वजह से कह नहीं पा रहे थे.मैंने भी हार नहीं मानी और कोशिश करती रही.आखिर मेरी कोशिश रंग लायी और मुझसे जवाब में कहा गया कि -

"हमें नारंगी  रंग का पानी पीना है"यानि वो कोल्ड ड्रिंक पीना चाहते थे.
"चलो तुम्हारी फरमाइश पूरी करते है ."

अभी मैंने ये कहा ही था कि, सभी बच्चे खुश होते हुए पार्क के बाहर लगी खोके नुमा दूकान पर जा पहुचे.बच्चो ने जैसे ही वहां सजे शीशे के जार में मठरियां देखी .... तो चिल्ला पड़े.....और उस तरफ इशारा करते हुए बोले 

"वो रहीं मठरियां...... हमें तो वो खानी है".

मैंने दूकानदार से इन बच्चो को मठरियां देने को कहा .... दुकानदार ने पहले तो हैरानी से मेरी तरफ देखा और फिर मुस्कुरा कर सब बच्चो को मठरियां पकड़ा दी.मठरियां देते वक़्त उस दुकानंदार के चेहरे पर भी तसल्ली झलक आयी थी.

अब 'उन' बच्चो को अपनी फरमाइश पूरी होने का इन्तिज़ार था जिन्होंने "नारंगी रंग का पानी"(कोल्ड ड्रिंक)पीने की खुआइश ज़ाहिर की थी.लिहाज़ा अब,हम सब,सामने के किराना स्टोर में घुस गयी.चमचमाते स्टोर में जा कर पहले तो ये बच्चे ज़रा.... झिझके.फिर वहा सजी खाने पीने की चीजों को ताकने लगे.अचानक उनमे से एक बच्चे की नज़र फ्रिज में रखी कोल्ड ड्रिंक पर पड़ी .. जिसे देखते ही वो ख़ुशी से चिल्ला पड़ा ...

" अरे..... वो रही नारगी रंग की बोतल ...  मैं तो यही पियूँगा".
मैंने फ्रिज से उनकी पसंदीदा "नारंगी रंग की बोतलें "निकाल कर उनके हाथो में थमा दी 

बिल का पेमेंट करके, हम सब दूकान के बाहर आ गए.बाहर आते ही उन सब ने बिना देर किये कोल्ड ड्रिंक की बोतले खोल कर "नारंगी रंग का पानी"  पीना शुरू कर दिया.


उस लम्हा मैंने उन मासूम बच्चो के चहेरों पर  जो ख़ुशी देखी  उसे देख कर मेरा  दिल  सुकून के  खुशनुमा  अहसास से भर गया.ये खुशनुमा अहसास एक हसीन याद बन कर हमेशा मेरे साथ रहेगा .


 अरशिया ज़ैदी 




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जगजीत सिंह .........कहां तुम चले गये




आज भी मुझे याद है वो दिन, जब मुझे दिल्ली के जामिया- मिलिया इस्लामिया में मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी की याद में आयोजित,एक प्रोग्राम में शामिल होने  का मौक़ा मिला था. इस  मौके पर कई मशहूर और बाइज्ज़त हस्तिया शामिल हुई थी,इन हस्तियों में एक बेहद खास चेहरा था ...... ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह का,जो  सफ़ेद कुरता -पैजामा पहने एक किनारे खामोश  खड़े हुए थे.


जगजीत सिंह नाम है एक ऐसी शख्सियत  का ..... जिनके बारे में,कितना  भी लिखा जाये वो कम होगा. 8 फरवरी 1941 को जन्मे  जगजीत सिंह को  बचपन  में  नाम  मिला था जगमोहन सिंह. एक दिन  उनके माँ-बाप के गुरु ने  उन्हें शबद गाते हुए सुना तो कहा कि .." इस बच्चे का नाम बदल कर जगजीत सिंह कर दो,इसकी आवाज़ में इतनी मीठास है ..... की  ये सारे जग को जीत लेगा ".इस तरह उन का नाम जगमोहन  सिंह से बदल कर जगजीत सिंह कर दिया गया.


जगजीत सिंह को गज़लो का बादशाह कहा जाता है.उन्होंने गज़लों को   आसान शायरी में तब्दील किया और सेमी क्लास्सिक बना कर लोगो के सामने पेश किया.1970  के दशक में जब गज़ले नूर जहाँ,मेहदी हसन ,मल्लिका पुखराज,बेगम अख्तर,तलत महमूद जैसे दिग्गज गा रहे थे.उस  दौर में,जगजीत सिंह अपनी खूबसूरत आवाज़ और गायकी से  उनके बीच  जगह बनाने में कामयाब रहे. जगजीत सिंह ने गजलो को अपना आधार बनाया. और गिटार जैसे वेस्टर्न साज और Digital Multitrack Recording   का इस्तेमाल करके ग़ज़ल को एक नई पहचान देकर उसे आम लोगो के बीच मशहूर कर दिया .



जगजीत सिंह ने मशहूर गायिका चित्रा को अपनी ज़िन्दगी का हम सफ़र बनाया.और1969 में उनसे शादी कर ली. इन दोनों ने,बतौर हिंदुस्तान की पहली पति -पत्नी की हिट जोड़ी के रूप में,देश और दुनिया में कई बेहेतरीन  पर्फोर्मांस देकर मोसकी और गायकी में अपनी अमिट छाप छोड़ दी है.नए रेकॉर्ड्स बनाने वाली उनकी एल्बम THE UNFORGATABLES में इस जोड़े ने अपनी मखमली आवाज़ में ऐसी लाजवाब गजले गायीं है जिनका जादू आज भी लोगो के सर चढ़ कर बोलता है................... 

"दुनिया जिसे कहते है जादू का खिलौना है , मिल जाये तो मिट्टी है,  खो  जाये तो सोना है ........."
"सरकती जाये है रुख़ से  नकाब आहिस्ता आहिस्ता , निकालता आ रहा है आफ़ताब आहिस्ता  आहिस्ता ......."
"बहुत  पहले से इन क़दमो की आहट जान लेते है , तुझे ए  जिंदिगी हम दूर से पहचान लेते है.....". वगेह्रह   वगेह्रह   ....... उनकी ऐसी यादगार  गज़ले है जो आज भी  हर गजल सुनने  वाले की पहली पसंद हुआ करती  है .
         

 उन्होंने मिर्ज़ा ग़ालिब,क़तील शिफाई,निदा फाजली,फिराक गोरखपुरी, शाहिद कबीर,अमीर मीनानी,कफील अजहर,सुदर्शन फकीर की  शायरी को अपनी खूबसूरत आवाज़ से सजाया. जगजीत सिंह के कई शुरुवाती  कामयाब ग़ज़ल अलबमो के टाईटल जहा इंग्लिश में हुआ करते थे ......जैसे   Hope, In search,Vision , Love is Blind., Ecstasies, A Sound Affair, Passions.etc.वही बाद में,उनका रुझान उर्दू की तरफ ज्यादा हो गया था. जिसके चलते उन्होंने अपनी ग़ज़ल अलबमो को मेराज,कहकशां,चिराग , सजदा,सोज,सहर,मुन्तजिर,और मरासिम जैसे उर्दू उन्वानो(titles) से सवारा.इसके अलावा उन्होंने हिंदी,उर्दू ,पंजाबी, नेपाली,सिन्धी,बंगाली गुजरती में भी अनगिनत गीत गाये .
                

कहते है कि हर कामयाबी के पीछे कड़ी मेहनत,लगन और लम्बा संघर्ष छुपा होता है.गज़लों के इस बेताज बादशाह को भी बॉलीवुड में एक अच्छा ब्रेक पाने के लिए काफी जद्दोजहेद करनी पड़ी......फिल्म एक्टर  ओम प्रकाश के बुलावे पर जब वो  फिल्मो में अपनी किस्मत आजमाने सपनो के शहर मुंबई  गए तो उन्हें काफी मायूसी  का सामना करना पड़ा .., बड़े बड़े संगीत कारो ने उनकी आवाज़ सुनी,पर ये कह कर मना कर दिया की ..... "आपकी आवाज़ तो अच्छी है ,पर हीरो  पर सूट नहीं करेगी ."
इसके बाद भी वो हताश नहीं हुए और बड़े- बड़े एक्टरो के घर सजी - महफ़िलो में भी उन्होंने performance दी,इस उम्मीद पर ........की शायद  किसी को उनकी आवाज़ पसंद आ जाये और उन्हें फिल्मो में गाने का एक मौक़ा मिल जाये.आखिर कार उनकी ये कोशिशे रंग लायी और1980 के दशक में प्रेमगीत,साथ साथ, अर्थ जैसी फिल्मो में अपनी मोसकी और खूबसूरत आवाज़ से सबको अपना क़ायल बना दिया .
फिल्म प्रेम गीत(1981)का का मशहूर गीत..." होठो  से छु लो तुम,मेरा  गीत अमर कर दो"फिल्म साथ -साथ  का  ...

"तुमको देखा तो ये,ख़याल  आया,जिंदिगी धूप तुम घना साया."
फिल्म अर्थ की मशहूर गज़ले -"तेरे खुशबू में लिखे ख़त मैं जलाता कैसे" ,                                                
                                               "झुकी झुकी सी नज़र बेक़रार है के नहीं..

 "तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो 
  क्या गम है जिसको छुपा रहे हो." 
                                                                   
"कोई ये कैसे बताये के वो  तन्हा क्यों है.".... 

जैसे गीत और गजले उनकी आवाज़ और मौसकी से सजे हुए है.इसके अलावा नये दौर की कई फिल्मे जैसे गाँधी टू हिटलर ,कसक, वीरज़ारा , जोगेर्स पार्क,तरकीब, दुश्मन,सरफरोश तुम बिन में भी उन्होंने अपनी आवाज़ का जादू बिखेरा.जिसकी गजले और गीत लोग अपने favourite  collection में बड़े शौक़ से  रखते है .


मशहूर शायर गुलज़ार जगजीत सिंह को प्यार से ग़ज़ल जीत सिंह कहा करते  थे. गुलज़ार के टी.वी सीरियल मिर्ज़ा ग़ालिब की मशहूर गज़लो को  जगजीत सिंह ने अपनी आवाज़ में गा कर बेमिसाल बना दिया है. 


अपनी गायकी से सबका दिल जीत लेने वाले जगजीत सिंह की जिंदिगी  में उस वक़्त अँधेरा छा गया, जब जुलाई 1990 के एक रोड एक्सिडेंट में, उनके बीस साल के एकलौते बेटे, विवेक की मौत हो गयी.जिसके बाद सदमे में डूबी चित्रा सिंह ने, जहां हमेशा के लिए गाना छोड़ दिया.वही जगजीत सिंह ने अपने  बेटे की बेवक्त जुदाई के दर्द को अपने अंदर ही जज़्ब कर लिया और संगीत में अपने आप को, पूरी तरह  से डुबो दिया.जगजीत सिंह अक्सर एक पंजाबी  गाना गाते थे......."मिटटी का बावा" जिसे उनकी बीवी चित्रा सिंह ने एक पंजाबी फिल्म में गाया था.ये गाना जिसमे,किसी अपने को..... बहुत कम उम्र में खो देने का दर्द बया किया गया है, जो उनकी ही आप बीती है.जगजीत सिंह ने अपने बेटे विवेक की याद में एक एल्बम Some One Some Where(1994)निकाला था,जिसमे आखरी बार उनकी पत्नी चित्रा सिंह ने  उनके  साथ  गाया  था.




अपनी आवाज़ से सबके दिलो पर  राज करने वाले  जगजीत सिंह, एक ऐसे बेहेतरीन इंसान थे,जिन्होंने कई बार दूसरो की मदद, इतनी ख़ामोशी से कि, कि किसी को पता भी नहीं चला.एक शो ओर्गानायेज़र, जिनका काम ठीक-ठाक नहीं चल रहा था .एक महफ़िल में वो जगजीत सिंह से मिले और उनके साथ शो करने की  ख्वाहिश ज़ाहिर की और अपनी परेशानी बताते हुए कहा की "मेरी बेटी की शादी है,और मेरे पास पैसे की कमी  है, .... अगर आपके शो की ज़िम्मेदारी मुझे मिल जाएगी,तो मुझे बतौर प्रोफिट दो तीन लाख रूपए बच जायेगे और मुश्किलें आसान  हो जाएगी." जगजीत सिंह के पूछने पर ....... उन्होंने पैसे की पूरी ज़रुरत बता दी.


अगले दिन जगजीत सिंह ने उनको को बुलाया और कहा ..... " ठीक है .... आप मेरे लिए शो Organize करें, मै आपके शो में गाऊँगा लेकिन आपको शो इसी हफ्ते मे करना होगा."  ये सुन कर वो organizer घबरा गए और कहने लगे ..... "सर इतनी जल्दी शो कैसे organize होगा ......  इसके  लिए तो काफी तैयारी करनी होगी. इस पर जगजीत सिंह ने बेफिक्र होकर, मुस्कुराते हुए कहा ...... " फिक्र मत करो सब हो जायेगा. तुम्हारी बेटी की शादी तय हो गयी  है .... ये मिठाई का डिब्बा घर ले  जाओ और सबका मुह मीठा करो. "ये सुन कर वो साहब,मायूस होकर अपने घर चले गए. घर जाकर जब उन्होंने वो मिठाई का डिब्बा खोला तो हैरान रह गए ... क्योकि उस डिब्बे में उतनी रकम रखी हुई थी, जितनी उन्हें अपनी बेटी की शादी के लिए ज़रुरत थी .


अपने काम को लेकर उनका मानना था की "पहले हमें खुद अपने काम को, अच्छी तरह से समझ कर ,तसल्ली कर लेनी चाहिए,क्योकि  जब हमें अपने काम से तसल्ली  होगी ,तब हम दूसरो से ये उम्मीद कर सकते है की शायद उन्हें  भी  हमारा काम पसद  आये."


वो अपने काम के लिए इतने Devoted थे की, जब उनकी माँ का इंतकाल हुआ तो, उस दिन कोलकाता में उनका बहुत बड़ा शो था. सारे टिकेट एडवांस  में बिक चुके थे. माँ के गुजर जाने की खबर सुन कर उन्होंने फ़ौरन दिल्ली का एयर टिकेट बुक कराया, घर पहुच कर,एक बेटे होने के सारे फर्ज अदा किये, और फिर वापस अपना शो करने कोलकाता चले गए. .....किसी का कोई नुकसान नहीं होने दिया उन्होंने .शो में पहुच कर भी उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा ...... बल्कि,एक घंटा देर से पहुचने के लिए माफ़ी मांगी.  फिर तीन चार अच्छी -अच्छी गज़ले पेश करने  के बाद सबको बताया की उनकी माँ इस दुनिया से चली गयी है.ये था उनका Professionalism और  काम के लिए उन की लगन .

2003 में उन्हें आर्ट और संगीत में दिए गए योगदान के लिए भारत सरकार ने तीसरे सबसे बड़े अवार्ड पदम् भूषण से सम्मानित किया. इसके बाद 10 मई 2007 को संसद भवन के सेंट्रल हॉल में1857 में लड़ी  गयी पहली आजादी की लडाई की 150 वी साल गिरह पर, जगजीत सिंह ने बहादुर शाह  जफ़र की मशहूर ग़ज़ल ..... लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में ..... गायी.जिसे सुनने के लिए राष्ट्रपति अबुल कलाम आज़ाद ,प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ,लोक सभा स्पीकर सोम नाथ चटर्जी,कांग्रेस प्रेसिडेंट सोनिया गाँधी के अलावा तमाम बड़े नेता मौजूद थे.
                                                                           

 जगजीत सिंह आखरी वक़्त तक ,अपनी सुरीली आवाज़ से महफिले सजाते रहे. बीमार होने से पहले उन्होंने लगातार तीन शो किये थे.जो 16 सितम्बर 2011 को मुंबई के Nehru Science Centre में,17 सितम्बर 2011को  दिल्ली के श्री फोर्ट ऑडिटोरियम में और 20 Sep.को देहरादून के The Indian Public School में organised किया गया. वही उन्होंने सर दर्द की शिकायत की थी ,जिसके बाद मुंबई के लीलावती अस्पताल में उनके दिमाग की सर्जरी हुई और उन्हें  I.C.U में Ventilator पर रखा गया था .देश और दुनिया में उनके अनगिनत चाहने वाले उनके सेहत मंद होने की दुआ मांगते हुए ये कहते रहे
  
"उठ के महफ़िल से मत चले जाना
    तुमसे रोशन ये कोना कोना है."

लेकिन फिर भी, उन्होंने किसी की नहीं सुनी और 70 साल की उम्र में 10 अक्टूबर 2011 को अपने सभी  चाहने वालो को अलविदा कह कर वो इस दुनिया से चले गये  .और उन्हें याद करके हमारे सुनने के लिए छोड़ गये ..... अपना गाया हुआ ,ये गीत ...... 

चिट्ठी न कोई सन्देश , 
न जाने कौन से देश
कहां  तुम चले गये .


अरशिया  ज़ैदी












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