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जगजीत सिंह .........कहां तुम चले गये 

आज भी मुझे याद है वो दिन, जब मुझे दिल्ली के जामिया- मिलिया इस्लामिया में मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी की याद में आयोजित,एक प्रोग्राम में शामिल होने  का मौक़ा मिला था. इस  मौके पर कई मशहूर और बाइज्ज़त हस्तिया शामिल हुई थी,इन हस्तियों में एक बेहद खास चेहरा था ...... ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह का,जो  सफ़ेद कुरता -पैजामा पहने एक किनारे खामोश  खड़े हुए थे.
जगजीत सिंह नाम है एक ऐसी शख्सियत  का ..... जिनके बारे में,कितना  भी लिखा जाये वो कम होगा. 8 फरवरी 1941 को जन्मे  जगजीत सिंह को  बचपन  में  नाम  मिला था जगमोहन सिंह. एक दिन  उनके माँ-बाप के गुरु ने  उन्हें शबद गाते हुए सुना तो कहा कि .." इस बच्चे का नाम बदल कर जगजीत सिंह कर दो,इसकी आवाज़ में इतनी मीठास है ..... की  ये सारे जग को जीत लेगा ".इस तरह उन का नाम जगमोहन  सिंह से बदल कर जगजीत सिंह कर दिया गया.
जगजीत सिंह को गज़लो का बादशाह कहा जाता है.उन्होंने गज़लों को   आसान शायरी में तब्दील किया और सेमी क्लास्सिक बना कर लोगो के सामने पेश किया.1970  के दशक में जब गज़ले नूर जहाँ,मेहदी हसन ,मल्लिका पुखराज,बेगम अख्तर,तलत महमूद जैसे दिग्गज गा रहे थे.उस  दौर में,जगजीत सिंह अपनी खूबसूरत आवाज़ और गायकी से  उनके बीच  जगह बनाने में कामयाब रहे. जगजीत सिंह ने गजलो को अपना आधार बनाया. और गिटार जैसे वेस्टर्न साज और Digital Multi track Recording   का इस्तेमाल करके ग़ज़ल को एक नई पहचान देकर उसे आम लोगो के बीच मशहूर कर दिया .

जगजीत सिंह ने मशहूर गायिका चित्रा को अपनी ज़िन्दगी का हम सफ़र बनाया.और1969 में उनसे शादी कर ली. इन दोनों ने,बतौर हिंदुस्तान की पहली पति -पत्नी की हिट जोड़ी के रूप में,देश और दुनिया में कई बेहेतरीन  पर्फोर्मांस देकर मोसकी और गायकी में अपनी अमिट छाप छोड़ दी है.नए रेकॉर्ड्स बनाने वाली उनकी एल्बम THE UNFORGATABLES में इस जोड़े ने अपनी मखमली आवाज़ में ऐसी लाजवाब गजले गायीं है जिनका जादू आज भी लोगो के सर चढ़ कर बोलता है................... 
दुनिया जिसे कहते है जादू का खिलौना है , मिल जाये तो मिट्टी है,  खो  जाये तो सोना है .........
सरकती जाये है रुख़ से  नकाब आहिस्ता आहिस्ता , निकालता आ रहा है आफ़ताब आहिस्ता  आहिस्ता .......
बहुत  पहले से इन क़दमो की आहट जान लेते है , तुझे ए  जिंदिगी हम दूर से पहचान लेते है...... वगेह्रह   वगेह्रह   ....... उनकी ऐसी यादगार  गज़ले है जो आज भी  हर गजल सुनने  वाले की पहली पसंद हुआ करती  है .
          उन्होंने मिर्ज़ा ग़ालिब,क़तील शिफाई,निदा फाजली,फिराक गोरखपुरी, शाहिद कबीर,अमीर मीनानी,कफील अजहर,सुदर्शन फकीर की  शायरी को अपनी खूबसूरत आवाज़ से सजाया. जगजीत सिंह के कई शुरुवाती  कामयाब ग़ज़ल अलबमो के टाईटल जहा इंग्लिश में हुआ करते थे ......जैसे   Hope, In search,Vision , Love is Blind., Ecstasies, A Sound Affair, Passions.etc.वही बाद में,उनका रुझान उर्दू की तरफ ज्यादा हो गया था. जिसके चलते उन्होंने अपनी ग़ज़ल अलबमो को मेराज,कहकशां,चिराग , सजदा,सोज,सहर,मुन्तजिर,और मरासिम जैसे उर्दू उन्वानो(titles) से सवारा.इसके अलावा उन्होंने हिंदी,उर्दू ,पंजाबी, नेपाली,सिन्धी,बंगाली गुजरती में भी अनगिनत गीत गाये .
                कहते है कि हर कामयाबी के पीछे कड़ी मेहनत,लगन और लम्बा संघर्ष छुपा होता है.गज़लों के इस बेताज बादशाह को भी बॉलीवुड में एक अच्छा ब्रेक पाने के लिए काफी जद्दोजहेद करनी पड़ी......फिल्म एक्टर  ओम प्रकाश के बुलावे पर जब वो  फिल्मो में अपनी किस्मत आजमाने सपनो के शहर मुंबई  गए तो उन्हें काफी मायूसी  का सामना करना पड़ा .., बड़े बड़े संगीत कारो ने उनकी आवाज़ सुनी,पर ये कह कर मना कर दिया की ..... "आपकी आवाज़ तो अच्छी है ,पर हीरो  पर सूट नहीं करेगी ."
इसके बाद भी वो हताश नहीं हुए और बड़े- बड़े एक्टरो के घर सजी - महफ़िलो में भी उन्होंने performance दी,इस उम्मीद पर ........की शायद  किसी को उनकी आवाज़ पसंद आ जाये और उन्हें फिल्मो में गाने का एक मौक़ा मिल जाये.आखिर कार उनकी ये कोशिशे रंग लायी और1980 के दशक में प्रेमगीत,साथ साथ, अर्थ जैसी फिल्मो में अपनी मोसकी और खूबसूरत आवाज़ से सबको अपना क़ायल बना दिया .
फिल्म प्रेम गीत(1981)का का मशहूर गीत..." होठो  से छु लो तुम,मेरा  गीत अमर कर दो"फिल्म साथ -साथ  का  ...
"तुमको देखा तो ये,ख़याल  आया,जिंदिगी धूप तुम घना साया."
फिल्म अर्थ की मशहूर गज़ले -"तेरे खुशबू में लिखे ख़त मैं जलाता कैसे" ,                                                
                                               "झुकी झुकी सी नज़र बेक़रार है के नहीं.. "                           "तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो 
  क्या गम है जिसको छुपा रहे हो." 
                                                                   "कोई ये कैसे बताये के वो  तन्हा क्यों है.".... 
जैसे गीत और गजले उनकी आवाज़ और मौसकी से सजे हुए है.इसके अलावा नये दौर की कई फिल्मे जैसे गाँधी टू हिटलर ,कसक, वीरज़ारा , जोगेर्स पार्क,तरकीब, दुश्मन,सरफरोश तुम बिन में भी उन्होंने अपनी आवाज़ का जादू बिखेरा.जिसकी गजले और गीत लोग अपने favourite  collection में बड़े शौक़ से  रखते है .
मशहूर शायर गुलज़ार जगजीत सिंह को प्यार से ग़ज़ल जीत सिंह कहा करते  थे. गुलज़ार के टी.वी सीरियल मिर्ज़ा ग़ालिब की मशहूर गज़लो को  जगजीत सिंह ने अपनी आवाज़ में गा कर बेमिसाल बना दिया है. 

अपनी गायकी से सबका दिल जीत लेने वाले जगजीत सिंह की जिंदिगी  में उस वक़्त अँधेरा छा गया, जब जुलाई 1990 के एक रोड एक्सिडेंट में, उनके बीस साल के एकलौते बेटे, विवेक की मौत हो गयी.जिसके बाद सदमे में डूबी चित्रा सिंह ने, जहां हमेशा के लिए गाना छोड़ दिया.वही जगजीत सिंह ने अपने  बेटे की बेवक्त जुदाई के दर्द को अपने अंदर ही जज़्ब कर लिया और संगीत में अपने आप को, पूरी तरह  से डुबो दिया.जगजीत सिंह अक्सर एक पंजाबी  गाना गाते थे......."मिटटी का बावा" जिसे उनकी बीवी चित्रा सिंह ने एक पंजाबी फिल्म में गाया था.ये गाना जिसमे,किसी अपने को..... बहुत कम उम्र में खो देने का दर्द बया किया गया है, जो उनकी ही आप बीती है.जगजीत सिंह ने अपने बेटे विवेक की याद में एक एल्बम  Some One Some Where(1994)निकाला था,जिसमे आखरी बार उनकी पत्नी चित्रा सिंह ने  उनके  साथ  गाया  था.
अपनी आवाज़ से सबके दिलो पर  राज करने वाले  जगजीत सिंह, एक ऐसे बेहेतरीन इंसान थे,जिन्होंने कई बार दूसरो की मदद, इतनी ख़ामोशी से कि, कि किसी को पता भी नहीं चला.एक शो ओर्गानायेज़र, जिनका काम ठीक-ठाक नहीं चल रहा था .एक महफ़िल में वो जगजीत सिंह से मिले और उनके साथ शो करने की  ख्वाहिश ज़ाहिर की और अपनी परेशानी बताते हुए कहा की "मेरी बेटी की शादी है,और मेरे पास पैसे की कमी  है, .... अगर आपके शो की ज़िम्मेदारी मुझे मिल जाएगी,तो मुझे बतौर प्रोफिट दो तीन लाख रूपए बच जायेगे और मुश्किलें आसान  हो जाएगी." जगजीत सिंह के पूछने पर ....... उन्होंने पैसे की पूरी ज़रुरत बता दी.
अगले दिन जगजीत सिंह ने उनको को बुलाया और कहा ..... " ठीक है .... आप मेरे लिए शो Organize करें, मै आपके शो में गाऊँगा लेकिन आपको शो इसी हफ्ते मे करना होगा."  ये सुन कर वो organizer घबरा गए और कहने लगे ..... "सर इतनी जल्दी शो कैसे organize होगा ......  इसके  लिए तो काफी तैयारी करनी होगी. इस पर जगजीत सिंह ने बेफिक्र होकर, मुस्कुराते हुए कहा ...... " फिक्र मत करो सब हो जायेगा. तुम्हारी बेटी की शादी तय हो गयी  है .... ये मिठाई का डिब्बा घर ले  जाओ और सबका मुह मीठा करो. "ये सुन कर वो साहब,मायूस होकर अपने घर चले गए. घर जाकर जब उन्होंने वो मिठाई का डिब्बा खोला तो हैरान रह गए ... क्योकि उस डिब्बे में उतनी रकम रखी हुई थी, जितनी उन्हें अपनी बेटी की शादी के लिए ज़रुरत थी .
अपने काम को लेकर उनका मानना था की "पहले हमें खुद अपने काम को, अच्छी तरह से समझ कर ,तसल्ली कर लेनी चाहिए,क्योकि  जब हमें अपने काम से तसल्ली  होगी ,तब हम दूसरो से ये उम्मीद कर सकते है की शायद उन्हें  भी  हमारा काम पसद  आये."
वो अपने काम के लिए इतने Devoted थे की, जब उनकी माँ का इंतकाल हुआ तो, उस दिन कोलकाता में उनका बहुत बड़ा शो था. सारे टिकेट एडवांस  में बिक चुके थे. माँ के गुजर जाने की खबर सुन कर उन्होंने फ़ौरन दिल्ली का एयर टिकेट बुक कराया, घर पहुच कर,एक बेटे होने के सारे फर्ज अदा किये, और फिर वापस अपना शो करने कोलकाता चले गए. .....किसी का कोई नुकसान नहीं होने दिया उन्होंने .शो में पहुच कर भी उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा ...... बल्कि,एक घंटा देर से पहुचने के लिए माफ़ी मांगी.  फिर तीन चार अच्छी -अच्छी गज़ले पेश करने  के बाद सबको बताया की उनकी माँ इस दुनिया से चली गयी है.ये था उनका Professionalism और  काम के लिए उन की लगन .
2003 में उन्हें आर्ट और संगीत में दिए गए योगदान के लिए भारत सरकार ने तीसरे सबसे बड़े अवार्ड पदम् भूषण से सम्मानित किया. इसके बाद 10 मई 2007 को संसद भवन के सेंट्रल हॉल में1857 में लड़ी  गयी पहली आजादी की लडाई की 150 वी साल गिरह पर, जगजीत सिंह ने बहादुर शाह  जफ़र की मशहूर ग़ज़ल ..... लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में ..... गायी.जिसे सुनने के लिए राष्ट्रपति अबुल कलाम आज़ाद ,प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ,लोक सभा स्पीकर सोम नाथ चटर्जी,कांग्रेस प्रेसिडेंट सोनिया गाँधी के अलावा तमाम बड़े नेता मौजूद थे.
                                                                            जगजीत सिंह आखरी वक़्त तक ,अपनी सुरीली आवाज़ से महफिले सजाते रहे. बीमार होने से पहले उन्होंने लगातार तीन शो किये थे.जो 16 सितम्बर 2011 को मुंबई के Nehru Science Centre में,17 सितम्बर 2011को  दिल्ली के श्री फोर्ट ऑडिटोरियम में और 20 Sep.को देहरादून के The Indian Public School में organised किया गया. वही उन्होंने सर दर्द की शिकायत की थी ,जिसके बाद मुंबई के लीलावती अस्पताल में उनके दिमाग की सर्जरी हुई और उन्हें  I.C.U में Ventilator पर रखा गया था .देश और दुनिया में उनके अनगिनत चाहने वाले उनके सेहत मंद होने की दुआ मांगते हुए ये कहते रहे
 "उठ के महफ़िल से मत चले जाना
                                  तुमसे रोशन ये कोना कोना है."
लेकिन फिर भी, उन्होंने किसी की नहीं सुनी और 70 साल की उम्र में 10 अक्टूबर 2011 को अपने सभी  चाहने वालो को अलविदा कह कर वो इस दुनिया से चले गये  .और उन्हें याद करके हमारे सुनने के लिए छोड़ गये .....  अपना गाया हुआ ,ये गीत ...... 
चिट्ठी न कोई सन्देश ,
              न जाने कौन से देश
कहां  तुम चले गये .
अरशिया  ज़ैदी


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                मनोज  बाजपाई....एक बेमिसाल  एक्टर  




एक्टर मनोज बाजपाई  की एक्टिंग  की मैं  तब से  फैन रही  हूँ  जब से मैंने उन्हें  महेश  भट्ट के टी-वी  सीरियल  स्वाभिमान  में  सुनील का किरदार  निभाते हुए देखा था , हमेशा  से एक  अलग   छाप  छोड़ी है   उन्होंने , अपने  निभाए  हर किरदार  में,  आज उनकी   फिल्मे .... गैंग ऑफ़ वासेपुर  और  चक्रविहू   देश  विदेश  में  खूब तारीफें  बटोर रही हैं .   
अपने   पसंदीदा एक्टर  की   ये   कामयाबी,  ये  शोहरत   मुझे  भी   बेहद  अच्छी  लग रही  है   लेकिन दिल  में  इस  बात  का  मलाल  ज़रूर है  की  मनोज बाजपाई जैसे   बेहेतरीन  एक्टर   को   काफी  देर से  नोटिस  किया  गया है  जो अहमियत  उन्हें आज मिल रही है  वो  काफी  पहले   मिल  जानी  चाहिए थी  जबकी  वो  सत्याशूल (1999) ,दिल पे मत ले  यार 2000, ज़ुबैदा , अक्स 2001  रोड 2002, पिंजर 2003 ,वीर ज़ारा 2004, राजनीति 2010  जैसी  फिल्मो में... एक  के बाद  एक. बेहतरीन  पर्फोर्मंसस   देते रहे   हैं  और  जिसके  लिए उन्हें कई   बड़े - छोटे अवार्ड  से  लगातार नवाज़ा  जाता  रहा  है।     

  हिंदी  फिल्मों  में  लीक  से  हट कर  बेहेतरीन  किरदार  निभाने वाले   मनोज  बाजपाई को   वो तवज्जो   नहीं   दी गयी  जो उन्हें देनी चाहिए थी . देश - विदेश  में  धूम  मचाने  वाली  उनकी  फिल्म  गैंग  ऑफ़   वासेपुर  जैसी   क़ामयाब  फिल्म देने के बाद  जब  वो  Wills Indian  Fashion Week  में    रैंप  पर  चले तो हर कोई उन्हें अपने  कैमरे  में  कैद  करने को बेताब हो रहे  था  जबकि   एक वक़्त  वो था  की जब वो मुंबई में  ऐसिड  फैक्ट्री   के लिए, और दिल्ली  में  फिल्म  जेल के लियें   रैंप  पर  चले  थे तब न तो किसी ने उन्हें  नोटिस  किया  और न ही किसी ने  किसी ने  उन्हें   क्लिक  करना चाहा  था।

  लेकिन कुछ  लोग  पैदाइशी   एक्टर  होते हैं जिन्हें  कामयाबी  के आसमान  पर  चमकने  से कोई  नहीं रोक  सकता . मनोज  बाजपाई  ऐसे ही लोगो में से  एक हैं . दिल्ली  के   नेशनल स्कूल ऑफ़  ड्रामा  से   चार बार रिजेक्ट  होने  के बाद   उन्होंने   बेरी  ड्रामा ऑफ  स्कूल में   बेरी  जॉन  के  साथ  थियेटर   किया ....  जहां   सुपर स्टार  शाहरुख़  खान   उनके  क्लास मेट थे . खुद  के टैलेंट  पर   यक़ीन  रखने वाले मनोज बाजपाई  को बेरी  जॉन  ने  हमेशा  एक  बेहतर एक्टर  और बेहतरीन  शागिर्द  क़रार  दिया था . 
अपने करियर  में  उन्हें,  फ़िल्मी दुनिया की कई  कड़वी  हक़ीक़तो  का सामना  करना  पड़ा जहां  उन्हें  ये पता चला  की  अवार्ड  परफॉरमेंस  के लिए नहीं  बल्कि   रसूक  वाले   लीडिंग  एक्टर्स  को,  जीताने  के  लिए  भी  दिए  जाते  है  . एक  बार  उन्हें  बेस्ट एक्टर  अवार्ड के लिए  चुना  गया  था,  उसमे  एक  दूसरे  लीडिंग  एक्टर का   नॉमिनेशन  भी  था .जूरी  ने एक तरफ़ा  फैसला   सुनाते  हुए  उनसे  कहा    ......"की  आपको तो पता है की विनर  कैसे चुना गया है। मनोज  आप विनर नहीं हो ..... और जूरी  ने ये  तय  किया है की  अवार्ड  मेन   स्ट्रीम   के उसी एक्टर  को  दिया  जायेगा . क्योकि उसे पहली बार  एक्टिंग  के लिए  अवार्ड मिल रहा  है....इसलिए उसे  ये मौक़ा दिया जाना चाहिए,  उसने  इस फिल्म में बड़ी  मेहनत  से काम किया है . मनोज तो एक्टर है , एक्टिंग करेगा ही .....आज नहीं तो कल उसे अवार्ड मिल ही  जायेगा " इस वाक़ये  ने  उनके  अवार्ड  लेने  की ख़ुशी को  कही न कही  कम ज़रूर  कर  दिया . 

  इसी  तरह  सालों  पहले,  उनकी  फिल्म,  सत्या  को ऑस्कार अवार्ड  में न भेज कर जींस जैसी फिल्म को ऑस्कर  के लिए  नॉमिनेशन  दे  दिया  गया  था, इसलिए  अब,  जब  उनकी फिल्म  गैंग ऑफ़ वासेपुर  के  ऑस्कर  अवार्ड्स के लिए  nominate  किये  जाने  की  ख़बरे  ज़ोरों  पर  हैं  तब  वो कोई  ख़ास  उम्मीद  नहीं  रख   रहे हैं।   


बिहार  के  छोटे से  ग़ाव  बेलवा  से ताल्लुक़  रखने वाले   इस  बेमिसाल   एक्टर  ने  अपनी  शुरू वाती  दौर की   पढ़ाई   बेतिया  के,  के . आर  कॉलेज से  पूरी की  और  फिर दिल्ली  के   रामजस  कॉलेज से  इतिहास   में  ग्रेजुएशन  करके  कुछ  वक़्त के लिए दिल्ली  के सलाम बालक  ट्रस्ट में  पढाया।  फिल्मो में  अपने  करियर  के शुरुवाती दौर  में  उन्होंने  फिल्म  द्रोह काल  और बेंडिट  क्वीन(1994 ) में    छोटे छोटे  रोल  किये .1996  में  वो  फिल्म दस्तक में  मुकुल देव और सुष्मिता सेन के साथ एक छोटे से रोल  में  नज़र  आये .फिल्म  सत्या  के  बाद   वो कामयाबी  की सीढियां  चढ़ते  चले गए। आज  मनोज  बाजपाई  की फिल्मो को  न  सिर्फ अपने देश में बल्कि  विदेश  में भी बेहद  तारीफ  और  शोहरत  मिल रही है..... जो इंशाल्लाह  आगे  भी  जारी रहेगी 




मनोज  बाजपाई ने  अपनी  पहली  शादी  नाकाम  होने के  बाद  2005 में  फिल्म  एक्ट्रेस   नेहा  उर्फ़ शबाना रज़ा को अपनी जिंदिगी का  हमसफ़र  बनायाजिनके साथ  वो  खुश हाल  शादी शुदा  जिंदिगी बिता रहे है। अब वो  एक  नन्ही   सी  परी  के  पापा भी  हैं जिसे  यकीनन अपने एक्टर  पापा  पर  नाज़  रहेगा ..... हमेशा ... हमेशा !!!    

अरशिया  ज़ैदी 

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      एक  दिन अपनी टीचर  के साथ 



A day  with my Teacher
अगर  आपके  स्कूल  - कॉलेज टाइम  की आपकी favourite टीचर  आपके  घर  आ  जाएं   और आपके साथ   कुछ  घंटे  गुज़ारे  तो  आप  कैसा महसूस  करेंगे ....  ?  बहुत  excited,  बहुत  ख़ुशी  महसूस  करेंगे  न ,कुछ  ऐसा   ही  बीते  सन्डे  में  मैंने  महसूस किया था । 
पता  है  आपको , बीते  सन्डे  मैं  मेरे  कॉलेज टाइम की   favorite  टीचर  और  मेरी  रहनुमा  मिसेज़ वसुमती अग्निहोत्री  अपने   बच्चों  के  साथ  हमारे  घर आयी थीं . तक़रीबन  10-15 साल के बाद मैं  उनसे मिल रही  थी ..... बहुत  खुश  थी  मैं . 
उनसे  मेरा  रिश्ता  तब  का है  जब  मैं  11th  क्लास  में  पढ़ती  थी और  वो  हमारी  हिस्टरी टीचर  थी . उन्हें   हम  वसु  दीदी  कहते    थे  क्योंकि   हमारे  कॉलेज  में  टीचर  को  दीदी  बुलाया जाता  था .

एक  सुलझी हुए सोच , निडर और बिंदास  अंदाज़  और हमेशा  अपने  स्टुडेंट्स को  सुनने -समझने और  मदद  करने  को तैयार  रहने  वाली  रौबदार  शक्सियत   रही   हैं  वसु  दीदी  । उन्हें  शेरो -शायरी  का  भी  शौक़  था , गाती  भी  अच्छा  थी, इसलिए  कॉलेज में  होने वाली Extra  Curricular  Activities  में  उनकी   सुरीली   आवाज़ में  गीत  और  गज़ले  भी  सुनने  को  मिलते  थे।

 वो  अपने  स्टुडेंट्स  का बहुत  ख़याल  रखती  थी ,बात  उन  दिनों  की  है  जब  हमारे 12th के  बोर्ड   के  इम्तिहान  हो रहे थे .....  मैं  इम्तिहान दे रही थी .... और  मुझे   ठण्ड  लग रही थी .... वसु  दीदी  क्लास में  स्टुडेंट्स  को  चेक  करने  आयी   थी, उन्होंने  मुझे  देखा ...और  बिना  कुछ  कहे  अपनी   शाल  उड़ा  दी.  हॉल  में   बैठी  बाक़ी  लडकियाँ  तिरछी  निगाहो  से   मेरी  तरफ  देखने  लगी  थी . क्योकि  वसु दीदी  की  रौबदार  शक्सियत  से  लड़कियां  जल्दी  उनसे  बात  करने  में  झिझकती  थी . मुझे  भी  अपनी  पसंददीदा  टीचर  से  मिला  ये  प्यार  और  अहमियत  बहुत  अच्छी  लग  रही  थी  और  इस  वाक़ये  के  बाद  मैं  जज़्बाती  तौर  पर  उनसे  जुड़ने  लगी  थी .
   
उनकी  जिंदिगी  का  एक  पहलु  ये  भी  है  की  वो   इंसानियत  के  नाते  हमेशा  दूसरो की  मदद करने  को तैयार  रहती थी। इंसानियत  की  एक मिसाल  उन्होंने  तब   क़ायम  की, जब  उन्होंने Muscular  Dystrophy  जैसी  बीमारी ,(जिसमे  मरीज़  हिलडुल  भी  नहीं  पाता) की  एक  Patient  पदमा  अग्रवाल  की लम्बे  वक़्त  तक   ख़िदमत  की   और  उनका  ख़याल  रखा. उनके  दर्द  को  कम  करने  और  उनका  हक़  दिलवाने  के लिए  न  जाने  कितने  लोगो  से लड़ी , दुश्मनी  मोल ली ... लेकिन  पीछे  नहीं   हटी.

वसु दीदी  ने पदमा दीदी  को  कमरे  की  चार  दिवारी  से निकाला,  और  उन्हें  हरे - भरे  पार्क  की  सैर  से  लेकर  पहाड़ो तक की सैर  करवायी. वसु  दीदी  ने  उन्हें  ख़ुश  रखने  और उनके  होटो पर मुस्कराहट लाने की  हर मुमकिन  कोशिश  की .जिसमे  वो कामयाम रही .

वसु  दीदी  ने  ही मेरी  मुलाक़ात  पदमा  दीदी  से करवाई  थी,जो उम्र  में  मुझसे  काफी  बड़ी  थी, मेरा  मानना  है की दोस्ती के लिए उम्र नहीं  बल्कि  सोच  और ख़याल मिलना  ज़रूरी  होता है. पदमा दीदी  मेरी  मुलाक़ात कब  दोस्ती  के गहरे  रिश्ते  में बदल गयी  मुझे  पता  ही नहीं  चला , पद्मा दीदी  का  दर्द  मुझे  भी  बहुत  दुःख  देता था ... और मैं  दिल  से  उनके  लिए  कुछ  करना चाहती थी। यहाँ  मेरे मम्मी - डैडी  से,  विरासत  में  मिली  इंसानियत   और  वसु - दीदी की  Inspiration ने   मेरे  हौसले  बुलंद किये  .... जिसकी  वजह  से  मैं  भी  पदमा  दीदी  की  थोड़ी  बहुत  ख़िदमत  कर  सकी.

पदमा  दीदी  की  बारे  में  क्या  बताऊ , बस  इतना  ही  कह सकती हूँ  की  उन  जैसे  लोग  ख़ुदा  बहुत कम  ही बनाता  है ,उनकी Death  से  एक  दिन  पहले  ही  मैं  उनसे  मुलाक़ात  करने  गयी  थी  और अगले दिन ही पता चला था की वो इस  दुनिया से चली गयी  हैं . उनका  नाम  आते  ही  आज  भी  आखें  नम हो जाती है . उनसे वो आख़री  मुलाक़ात  और  उनके  प्यार का अहसास  आज  भी  मेरे  साथ  है .   

इसके  बाद  जब  वसु  दीदी   पहली बार  हमारे  घर  आयी  थी , उससे   जुडी  ख़ूबसूरत   याद  आज  भी  मेरे  ज़हन  में  ताज़ा  है  , उन्हें  अपने   घर  में   देखकर  मेरी  ये  समझ  में   नहीं  आ  रहा  था  की उन्हें कहां  उठाऊ .... कहाँ  बिठाऊ . जब  वो  मेरे  मम्मी - डैडी   से  मिली  तो उन्हें  और भी  ज़्यादा  अच्छा  लगा  और   फिर  हमारे  घरेलु   ताल्लुक़ात  हो  गए थे  और  हम  अक्सर  एक  दुसरे  के  घर  आने -जाने  लगे ,इसके  बाद  हम  सब  अपनी- अपनी  ज़िन्दिगियो  में  मसरूफ होते  चले गए ... मैं  अपनी  पढ़ाई   में  .... और   वसु  दीदी  कामयाबी  की  ऊचाईयों  को  छूती  चली गयी, इंटर  कॉलेज  की टीचर   से  वो   प्रिंसिपल  बनी  प्रिंसिपल  से  District  Inspector Of  School  बनी  और  फिर लखनऊ   में  Deputy  Director in Education  की  पोस्ट  को  बाख़ूबी  संभाला  और  जुलाई  2011 को  Deputy Director  की  पोस्ट  से  रिटायर  हुई .

   इतने  लम्बे  अरसे के बाद  हम  मिल रहे थे .....  यक़ीन  जानिये ,मिल कर  ये  बिल्कुल  भी नहीं  लगा  की  जैसे  हमें  15  साल  के बाद  मिल  रहे  हैं । वसु  दीदी   आयी..... आराम  से  बैठी, अपनी  तजुर्बेकार  नज़रों  से  हमारे  चहेरों  को  पढ़ती   रही ---- प्यार  से  मुस्कुराती  रही  . वो  लखनऊ  से मशहूर  चिकन  के   कुर्तो  के  रूप  में ,  हम सब  के  लिए  अपना  प्यार  समेट  कर  लाई  थी  जो  हम  सब  को   पसंद  आया , और हमने  सर  झुका कर  क़ुबूल किया  . उनके  बच्चे  और  मेरा  भाई  शैली (अली ) और  मेरी  बहन  सिम्मी  (हिना), हम  सभी  एक- दुसरे से  मिल कर  बेहद  खुश थे. 
मैंने  उनके  लिए  अच्छा  सा लंच  तैयार  किया  जिसे  हम  सब  ने  साथ  खाया  खाने के बाद  गरमा - गरम  चाय  और शेरो -शायरी  का  भी  दौर चला  जिसे   देख  कर पुराने  दिनों  की यादें  ताज़ा  हो गयी  बातो - बातो  में  ये  पता  ही  नहीं  चला  कब  तीन  घंटे  बीत  गए ..... फिछले कई  सालो का  स्टॉक था .... बातो  का ... इसलिए  दिल  किसी  का  भी  नहीं  भरा  था  न  उन लोगो का .... न ही हमारा  ....फिर  भी  उन्हें जाना था  इसलिए फिर मिलने  का  वायदा  करके  भारी  दिल  से  उन्हें  खुदा  हाफ़िज़  कहा .


कुछ  रिश्ते  ऐसे  होते  है   जिनमे  बेहद  अपना  पन  होता  है  जहां  आपकी  सोच  और  ख़याल  इतने  मिलते  होते  है,  की  आपको किसी  तसन्नो , किसी बनावट या  किसी  शो ऑफ   की  ज़रुरत  नहीं होती, कुछ  समझाने  की ज़रूरत  नहीं  होती, बिना कहे  बाते  समझ  ली  जाती हैं .
 a day with my teacher, on teacher's day
A day  with my Teacher
तब ....उस  रिश्ते  की अहमियत  और भी ज्यादा बढ़ जाती है  जब  रिश्ता एक " टीचर  और एक स्टुडेंट" का  हो मै उन   ख़ुशकिस्मत  स्टुडेंट्स  में  से एक हूँ .जिसे अपनी टीचर मिसेज़  वसुमती   अग्निहोत्री  के रूप  में  एक  ऐसा  गाइड  मिला  है , जिन्होंने  एक  रहनुमा बन  कर  मुझे  हमेशा  सही  रास्ता दिखाया  और   आगे  बढ़ने  का   हौसला  दिया 

अरशिया  ज़ैदी

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 100 साल की  जवान ......जोहरा सहगल 

"अभी  ना जाओ छोड़  कर,  
  के  दिल अभी  भरा नहीं .....
  के केक अभी कटा नहीं ....".ये  लाइने  गुनगुना रही थी मशहूर  थिऐटर  और  फिल्म  एक्टर  जोहरा सहगल..... अपनी 100 वी  साल गिरह  पर एक  बड़ा  सा  केक   काटते  हुए.
27 अप्रैल 1912 को उत्तर  प्रदेश  के  रामपुर  जिले  में  पैदा  हुई  और  सहारन पुर के  रूहेला पठान  ज़मीदार  खानदान  से ताल्लुक़  रखने वाली  जोहरा  सहगल बीती 27 अप्रैल को 100 साल की हो गयी.उनका ज़िक्र आते ही ऐसी  खुश मिज़ाज,अल्ल्हड़ , नटखट  और बिंदास   बुज़ुर्ग  अदा कारा  का चेहरा सामने आता है  जो अपनी  बेमिसाल   एक्टिंग  के लिए तो जानी ही जाती है....  साथ  ही जानी जाती है  जिंदिगी  के लिए अपने जोश  और प्यार  के  लिए .

एक  एक्टर  बनने  के लिए,उन्होंने अपने अंकल  के साथ ,इंग लैंड  तक  का  सफ़र सड़क  के रास्ते,अफगानिस्तान  और इरान  होते  हुए  तय  किया था .

जोहरा ने अपने  लम्बे करियर में  Indian People's Theatre और प्रथ्वी राज थिएटर  के साथ  14 साल  तक काम  किया,और आठ  साल  तक  अपने गुरु  उदय  शंकर से   डांस  क्लासेस  ली.फिल्मो में उनका  करियर  धरती के लाल  से  शुरू  हुआ   ....Bhaji on the beach (1992) हम  दिल  दे चुके  सनम , Bend it like Beckham (2002),दिल  से ...(1998),चीनी कम  और  सावरियां उनकी  यादगार  फिल्में हैं   

इसके अलावा  छोटे परदे  पर The Jewel in the crown,(1984),Tandoori Nights (1985-87),Amma & Family(1996) जैसे  मशहूर  टी वी  सीरियल स  में  भी अपने काम से लोगो  के दिलो  पर  अपनी  छाप  छोड़ने  में  कामयाब  रही.

जोहरा  नास्तिक  ख़यालात  की  रही है.ख़ुदा  में  यकीन  न  रखने  वाली जोहरा  ने  जब  मजहब  और जात -पात  से ऊपर उठ  कर अपने से  8 साल  जूनियर .... 'साइंटिस्ट ,डांसर  और  पेंटर'  कामेश्वर  नाथ  सहगल  से  शादी  का  फैसला  किया  तो शुरू  में  माँ - बाप की  रज़ा मंदी  नहीं  मिली  लेकिन  कुछ  वक़्त  के बाद  वो मान  गए  और उन्होंने  शादी  की इज़ाज़त  दे दी. 14  अगस्त  1942 को  उन्होंने  कामेश्वर  नाथ  सहगल  से  शादी कर ली .उनकी शादी के  reception  में  पंडित  जवाहर  लाल  नेहरु  भी शामिल  होने वाले  थे  लेकिन  उन्ही दिनों 'भारत  छोड़ो  आन्दोलन'  में  महात्मा गाँधी  का  साथ  देने  की वजह से  उन्हें  कुछ  दिनों के लिए  गिरफ्तार   कर  लिया और  वो  जोहरा  की  शादी में शामिल   नही  हो सके  थे .


जोहरा  की शख़्सियत  शुरू से ही  रोबदार  और  दूसरो पर  धोंस  जमाने  वाली, थी.1945 में जब वो और  उनकी  बहन  उज़रा  साथ -साथ  प्रथ्वी  थियेटर  में काम  कर रही थी  तो वो  अक्सर ओपरा हाउस  का एक  कोना पकड़  लिया  करती .... और फिर  किसी की मजाल ....की कोई उनका  छोटा सा भी  मेंकअप  का सामान  ले  सके.... यहाँ तक  की छोटी  बहन उज़रा  भी  नहीं ... हालांकि,सब उनकी बेहद  इज्ज़त  करते  थे  और  उनका  मुकाम  बहुत ऊंचा था फिर भी उन्हें .... ये लगता था की उज़रा बेहद गोरी और हसीन  है इसलिए सब उसे ज्यादा प्यार करते है.

वो खूबसूरत  दिखने  और  लोगो  का ध्यान  अपनी  तरफ  खींचने  के लिए  काफी  मशक्कत   करती.....और  उनकी ये चाहत  आज  भी  बरक़रार है . 
"आज  भी वो एक  ऐसी  खूबसूरत  औरत  दिखने की  ख़्वाहिश  अपने दिल में रखती है.जो अंग्रेजो  की तरह  बेहद  गोरी  हो और  जिसकी  आखों का रंग  नीला हो ." 

 उनकी जिंदिगी तब थम सी गयी, जब 1959 में उनके शोहर कामेश्वर  सहगल  ने, हमेशा  के लिए  अपनी  आँखें  बंद  कर ली ...और  बेटी किरण   सहगल  और बेटा पवन  सहगल  की  ज़िम्मेदारी अकेली जोहरा सहगल  पर आ गयी.अपनी इस  ज़िम्मेदारी  को  भी उन्होंने  बखूबी निभाया और  बच्चो  की  बेहेतरीन   परवरिश  की .  


जिंदिगी के  उतार - चढाव  उन्हें  कभी हरा  नहीं  पाए  उन्होंने .... अपने  अंदर की  आग  को जलाये  रखा .... बस  आगे चलती गयी ... कभी पीछे  मुड़  कर नहीं  देखा ,अपनी Creativity को बरक़रार रखते  हुए  हमेशा  कुछ  नया ... कुछ  अच्छा  करती गयी .जिसके लिए उन्हें अब तक  पद्म श्री(1998),काली दास  सम्मान ,(2001) जैसे  बड़े खिताबो से नवाज़ा  जा चुका  है.2004  में संगीत  नाटक  अकादमी से  उन्हें Life time achievements  के लिए  fellow ship  दी गयी और  2010  में  पदम् विभूषण  सम्मान  दिया  गया. 

जोहरा  सहगल  की बेटी  किरण  सहगल  ने  अपनी माँ की 100 वी साल  गिरह  पर  पहली Biography "जोहरा सहगल  फैटी"  निकाली  है जिसमे  उन्होंने  जोहरा सहगल   की जिंदिगी के  अन छुये पहलुओं पर  रौशनी  डाली है और  ख़ास तौर  पर "फैटी "लव्ज़  इसलिए  इस्तेमाल  किया है  क्योंकि  उनकी  माँ  अपने  वज़न  को लेकर आज भी  ऐसे ही ऐतिहात  बरतती  हैं ..... जैसे 16 साल  की लड़की ... हर हफ्ते अपना वज़न  तौलने वाली जोहरा सहगल  को अगर ज़रा सा भी  अपना वज़न  बढ़ा हुआ   लगता है,तो वो  फौर न अपनी diet  कम  कर  देती  हैं और दो टोस्ट के बजाये एक टोस्ट  ही लेना  पसंद करती  है. 


जोहरा सहगल वक़्त की बड़ी पाबंद हैं और अपनी घडी को पांच  मिनट  आगे रखती  हैं .....शायद  इसी लिए  वो वक़्त  से  कही आगे हैं, उन्होंने  उम्र  को अपने  ऊपर  कभी  हावी  नहीं होने  दिया....  और  आज  भी मस्ती में गुनगुनाती  हैं .. "अभी तो मैं जवान हूँ ...अभी तो मैं जवान  हूँ " 

अरशिया   ज़ैदी  
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  मेरी Inspiration  रेखा .....विद्या बालन 
Vidhya Baalan 


विद्या बालन की ताज़ा- तरीन फिल्म "कहानी "आज कल बड़ी सुर्खियों में है. हर कोई फिल्म के डारेक्टर सुजोय घोष के Direction और विद्या बालन की बेहतरीन    अदाकारी की तारीफ कर रहा है. 
 हम भी काफी दिनों से विद्या बालन की फिल्म कहानी की तारीफ सुन  रहे थे इसलिए ऑफिस से आने के बाद  प्रोग्राम बना लिया Night Show जाने का.

'घर के सामने  महागुन माल में  ही तो जाना  है....5 मिनट में पहुच जायेंगे...'. ये सोच कर इत्मिनान से खाना -वाना खा के निकले,जब हम जब PVR Cinema पहुचे  तो फिल्म शुरू हुए 5 मिनट हो चुके थे ... मूड तो वही ऑफ हो  गया था क्योकि फिल्म का एक सीन भी छूटे ये  हमें गवारा  नहीं... खैर अपनी झुन्ज्लाहट पे क़ाबू करते हम आगे बढ़ने लगे. 
सुजय घोष की फिल्म  कहानी शुरू से ही काफी  दिलचस्प लग रही थी ....7 month  pregnant विद्या बागची ( विधा बालन) अपने  खोये पति को लन्दन  से इंडिया आकर ढूँढ रही थी. इस  suspense thriller देखने के लिए हम इतने excited थे की सिनेमा हॉल की सीढियां चढ़ते  हुए  भी  अँधेरे में स्क्रीन पर अपनी आखें गडाए हुए थे.



सुजोय घोष ने कोलकाता की तंग गलियों में एक बेहेतरीन फिल्म शूट करके ये बता दिया है की एक अच्छी फिल्म को बनाने के लिए फिल्म की  दमदार कहानी के साथ अच्छा direction  भी ज़रूरी है.ज़रूरी नहीं है की फिल्म का बजट आसमान को छुए,फिल्म की शूटिंग विदेशो की  हसीन लोकेशन पर ही हो,या फिल्म में ज्यादा से ज्यादा गाने डाल कर दर्शको को रिझाने की नाकाम कोशिश  की जाएँ .

विद्या बालन अपनी ज्यादा तर फिल्मो में  अलग-अलग तरह के यादगार किरदारों को निभाती  रही है .परिणीता,लगे रहो मुन्ना भाई, नो वन किल्ड जेसिका,गुरु ,पा,इश्किया, द डर्टी पिक्चर ,या  हाल में आयी उनकी नई फिल्म कहानी इसकी मिसाल है. हर फिल्म में उन्होंने एक से बढ़ कर एक Performances दी हैं और हर फिल्म में कुछ नया करके दिखाया है.  
रेखा और विद्या बालन जब एक साथ दिखाई देती है,तो दोनों की शख्सियत काफी हद तक एक-दुसरे से मिलती-जुलती नज़र आती  है फिर चाहे वो इन दोनों के Indian looks हो,कांजीवरम  साड़ी पहेनने का शौक़ हो या फिर,हो इनकी......boldness.विद्या बालन का कहना है की वो  रेखा से बेहद inspired है,जब कोई उन्हें रेखा से मिलाता है तो ये उनके लिए सबसे बड़ा Compliment होता है.    

स्क्रीन अवार्ड्स 2012 में जब  रेखा ने विद्या   बालन की सुपर हिट फिल्म Dirty Picture के मशहूर गाने ऊ ला ला.... ऊ ला ला पे ...अपने बेहेतरीन डांस की झ लक दिखाई  और एक साथ स्टेज शेयर  किया तो ऐसा लगा की ख़ूबसूरत रेखा की बे मिसाल विरासत   को अगर कोई आगे लेकर जा सकता है तो वो है विद्या बालन और सिर्फ ......विद्या बालन

अरशिया  ज़ैदी


















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