आज भी मुझे याद है वो दिन, जब मुझे दिल्ली के जामिया- मिलिया इस्लामिया में मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी की याद में आयोजित,एक प्रोग्राम में शामिल होने का मौक़ा मिला था. इस मौके पर कई मशहूर और बाइज्ज़त हस्तिया शामिल हुई थी,इन हस्तियों में एक बेहद खास चेहरा था ...... ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह का,जो सफ़ेद कुरता -पैजामा पहने एक किनारे खामोश खड़े हुए थे.
जगजीत सिंह को गज़लो का बादशाह कहा जाता है.उन्होंने गज़लों को आसान शायरी में तब्दील किया और सेमी क्लास्सिक बना कर लोगो के सामने पेश किया.1970 के दशक में जब गज़ले नूर जहाँ,मेहदी हसन ,मल्लिका पुखराज,बेगम अख्तर,तलत महमूद जैसे दिग्गज गा रहे थे.उस दौर में,जगजीत सिंह अपनी खूबसूरत आवाज़ और गायकी से उनके बीच जगह बनाने में कामयाब रहे. जगजीत सिंह ने गजलो को अपना आधार बनाया. और गिटार जैसे वेस्टर्न साज और Digital Multi track Recording का इस्तेमाल करके ग़ज़ल को एक नई पहचान देकर उसे आम लोगो के बीच मशहूर कर दिया .

जगजीत सिंह ने मशहूर गायिका चित्रा को अपनी ज़िन्दगी का हम सफ़र बनाया.और1969 में उनसे शादी कर ली. इन दोनों ने,बतौर हिंदुस्तान की पहली पति -पत्नी की हिट जोड़ी के रूप में,देश और दुनिया में कई बेहेतरीन पर्फोर्मांस देकर मोसकी और गायकी में अपनी अमिट छाप छोड़ दी है.नए रेकॉर्ड्स बनाने वाली उनकी एल्बम THE UNFORGATABLES में इस जोड़े ने अपनी मखमली आवाज़ में ऐसी लाजवाब गजले गायीं है जिनका जादू आज भी लोगो के सर चढ़ कर बोलता है...................
दुनिया जिसे कहते है जादू का खिलौना है , मिल जाये तो मिट्टी है, खो जाये तो सोना है .........
सरकती जाये है रुख़ से नकाब आहिस्ता आहिस्ता , निकालता आ रहा है आफ़ताब आहिस्ता आहिस्ता .......
बहुत पहले से इन क़दमो की आहट जान लेते है , तुझे ए जिंदिगी हम दूर से पहचान लेते है...... वगेह्रह वगेह्रह ....... उनकी ऐसी यादगार गज़ले है जो आज भी हर गजल सुनने वाले की पहली पसंद हुआ करती है .
उन्होंने मिर्ज़ा ग़ालिब,क़तील शिफाई,निदा फाजली,फिराक गोरखपुरी, शाहिद कबीर,अमीर मीनानी,कफील अजहर,सुदर्शन फकीर की शायरी को अपनी खूबसूरत आवाज़ से सजाया. जगजीत सिंह के कई शुरुवाती कामयाब ग़ज़ल अलबमो के टाईटल जहा इंग्लिश में हुआ करते थे ......जैसे Hope, In search,Vision , Love is Blind., Ecstasies, A Sound Affair, Passions.etc.वही बाद में,उनका रुझान उर्दू की तरफ ज्यादा हो गया था. जिसके चलते उन्होंने अपनी ग़ज़ल अलबमो को मेराज,कहकशां,चिराग , सजदा,सोज,सहर,मुन्तजिर,और मरासिम जैसे उर्दू उन्वानो(titles) से सवारा.इसके अलावा उन्होंने हिंदी,उर्दू ,पंजाबी, नेपाली,सिन्धी,बंगाली गुजरती में भी अनगिनत गीत गाये .
इसके बाद भी वो हताश नहीं हुए और बड़े- बड़े एक्टरो के घर सजी - महफ़िलो में भी उन्होंने performance दी,इस उम्मीद पर ........की शायद किसी को उनकी आवाज़ पसंद आ जाये और उन्हें फिल्मो में गाने का एक मौक़ा मिल जाये.आखिर कार उनकी ये कोशिशे रंग लायी और1980 के दशक में प्रेमगीत,साथ साथ, अर्थ जैसी फिल्मो में अपनी मोसकी और खूबसूरत आवाज़ से सबको अपना क़ायल बना दिया .
फिल्म प्रेम गीत(1981)का का मशहूर गीत..." होठो से छु लो तुम,मेरा गीत अमर कर दो"फिल्म साथ -साथ का ...
"तुमको देखा तो ये,ख़याल आया,जिंदिगी धूप तुम घना साया."
फिल्म प्रेम गीत(1981)का का मशहूर गीत..." होठो से छु लो तुम,मेरा गीत अमर कर दो"फिल्म साथ -साथ का ...
"तुमको देखा तो ये,ख़याल आया,जिंदिगी धूप तुम घना साया."
फिल्म अर्थ की मशहूर गज़ले -"तेरे खुशबू में लिखे ख़त मैं जलाता कैसे" ,
"झुकी झुकी सी नज़र बेक़रार है के नहीं.. " "तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
क्या गम है जिसको छुपा रहे हो."
"कोई ये कैसे बताये के वो तन्हा क्यों है."....
जैसे गीत और गजले उनकी आवाज़ और मौसकी से सजे हुए है.इसके अलावा नये दौर की कई फिल्मे जैसे गाँधी टू हिटलर ,कसक, वीरज़ारा , जोगेर्स पार्क,तरकीब, दुश्मन,सरफरोश तुम बिन में भी उन्होंने अपनी आवाज़ का जादू बिखेरा.जिसकी गजले और गीत लोग अपने favourite collection में बड़े शौक़ से रखते है .
मशहूर शायर गुलज़ार जगजीत सिंह को प्यार से ग़ज़ल जीत सिंह कहा करते थे. गुलज़ार के टी.वी सीरियल मिर्ज़ा ग़ालिब की मशहूर गज़लो को जगजीत सिंह ने अपनी आवाज़ में गा कर बेमिसाल बना दिया है.
"झुकी झुकी सी नज़र बेक़रार है के नहीं.. " "तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
क्या गम है जिसको छुपा रहे हो."
"कोई ये कैसे बताये के वो तन्हा क्यों है."....
जैसे गीत और गजले उनकी आवाज़ और मौसकी से सजे हुए है.इसके अलावा नये दौर की कई फिल्मे जैसे गाँधी टू हिटलर ,कसक, वीरज़ारा , जोगेर्स पार्क,तरकीब, दुश्मन,सरफरोश तुम बिन में भी उन्होंने अपनी आवाज़ का जादू बिखेरा.जिसकी गजले और गीत लोग अपने favourite collection में बड़े शौक़ से रखते है .
मशहूर शायर गुलज़ार जगजीत सिंह को प्यार से ग़ज़ल जीत सिंह कहा करते थे. गुलज़ार के टी.वी सीरियल मिर्ज़ा ग़ालिब की मशहूर गज़लो को जगजीत सिंह ने अपनी आवाज़ में गा कर बेमिसाल बना दिया है.

अपनी आवाज़ से सबके दिलो पर राज करने वाले जगजीत सिंह, एक ऐसे बेहेतरीन इंसान थे,जिन्होंने कई बार दूसरो की मदद, इतनी ख़ामोशी से कि, कि किसी को पता भी नहीं चला.एक शो ओर्गानायेज़र, जिनका काम ठीक-ठाक नहीं चल रहा था .एक महफ़िल में वो जगजीत सिंह से मिले और उनके साथ शो करने की ख्वाहिश ज़ाहिर की और अपनी परेशानी बताते हुए कहा की "मेरी बेटी की शादी है,और मेरे पास पैसे की कमी है, .... अगर आपके शो की ज़िम्मेदारी मुझे मिल जाएगी,तो मुझे बतौर प्रोफिट दो तीन लाख रूपए बच जायेगे और मुश्किलें आसान हो जाएगी." जगजीत सिंह के पूछने पर ....... उन्होंने पैसे की पूरी ज़रुरत बता दी.
अगले दिन जगजीत सिंह ने उनको को बुलाया और कहा ..... " ठीक है .... आप मेरे लिए शो Organize करें, मै आपके शो में गाऊँगा लेकिन आपको शो इसी हफ्ते मे करना होगा." ये सुन कर वो organizer घबरा गए और कहने लगे ..... "सर इतनी जल्दी शो कैसे organize होगा ...... इसके लिए तो काफी तैयारी करनी होगी. इस पर जगजीत सिंह ने बेफिक्र होकर, मुस्कुराते हुए कहा ...... " फिक्र मत करो सब हो जायेगा. तुम्हारी बेटी की शादी तय हो गयी है .... ये मिठाई का डिब्बा घर ले जाओ और सबका मुह मीठा करो. "ये सुन कर वो साहब,मायूस होकर अपने घर चले गए. घर जाकर जब उन्होंने वो मिठाई का डिब्बा खोला तो हैरान रह गए ... क्योकि उस डिब्बे में उतनी रकम रखी हुई थी, जितनी उन्हें अपनी बेटी की शादी के लिए ज़रुरत थी .
अपने काम को लेकर उनका मानना था की "पहले हमें खुद अपने काम को, अच्छी तरह से समझ कर ,तसल्ली कर लेनी चाहिए,क्योकि जब हमें अपने काम से तसल्ली होगी ,तब हम दूसरो से ये उम्मीद कर सकते है की शायद उन्हें भी हमारा काम पसद आये."
वो अपने काम के लिए इतने Devoted थे की, जब उनकी माँ का इंतकाल हुआ तो, उस दिन कोलकाता में उनका बहुत बड़ा शो था. सारे टिकेट एडवांस में बिक चुके थे. माँ के गुजर जाने की खबर सुन कर उन्होंने फ़ौरन दिल्ली का एयर टिकेट बुक कराया, घर पहुच कर,एक बेटे होने के सारे फर्ज अदा किये, और फिर वापस अपना शो करने कोलकाता चले गए. .....किसी का कोई नुकसान नहीं होने दिया उन्होंने .शो में पहुच कर भी उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा ...... बल्कि,एक घंटा देर से पहुचने के लिए माफ़ी मांगी. फिर तीन चार अच्छी -अच्छी गज़ले पेश करने के बाद सबको बताया की उनकी माँ इस दुनिया से चली गयी है.ये था उनका Professionalism और काम के लिए उन की लगन .
जगजीत सिंह आखरी वक़्त तक ,अपनी सुरीली आवाज़ से महफिले सजाते रहे. बीमार होने से पहले उन्होंने लगातार तीन शो किये थे.जो 16 सितम्बर 2011 को मुंबई के Nehru Science Centre में,17 सितम्बर 2011को दिल्ली के श्री फोर्ट ऑडिटोरियम में और 20 Sep.को देहरादून के The Indian Public School में organised किया गया. वही उन्होंने सर दर्द की शिकायत की थी ,जिसके बाद मुंबई के लीलावती अस्पताल में उनके दिमाग की सर्जरी हुई और उन्हें I.C.U में Ventilator पर रखा गया था .देश और दुनिया में उनके अनगिनत चाहने वाले उनके सेहत मंद होने की दुआ मांगते हुए ये कहते रहे
"उठ के महफ़िल से मत चले जाना
तुमसे रोशन ये कोना कोना है."
"उठ के महफ़िल से मत चले जाना
तुमसे रोशन ये कोना कोना है."
लेकिन फिर भी, उन्होंने किसी की नहीं सुनी और 70 साल की उम्र में 10 अक्टूबर 2011 को अपने सभी चाहने वालो को अलविदा कह कर वो इस दुनिया से चले गये .और उन्हें याद करके हमारे सुनने के लिए छोड़ गये ..... अपना गाया हुआ ,ये गीत ......
चिट्ठी न कोई सन्देश ,
न जाने कौन से देश
कहां तुम चले गये .
अरशिया ज़ैदीकहां तुम चले गये .
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मनोज बाजपाई....एक बेमिसाल एक्टर
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एक्टर मनोज बाजपाई की एक्टिंग की मैं तब से फैन रही हूँ जब से मैंने उन्हें महेश भट्ट के टी-वी सीरियल स्वाभिमान में सुनील का किरदार निभाते हुए देखा था , हमेशा से एक अलग छाप छोड़ी है उन्होंने , अपने निभाए हर किरदार में, आज उनकी फिल्मे .... गैंग ऑफ़ वासेपुर और चक्रविहू देश विदेश में खूब तारीफें बटोर रही हैं .
अपने पसंदीदा एक्टर की ये कामयाबी, ये शोहरत मुझे भी बेहद अच्छी लग रही है लेकिन दिल में इस बात का मलाल ज़रूर है की मनोज बाजपाई जैसे बेहेतरीन एक्टर को काफी देर से नोटिस किया गया है जो अहमियत उन्हें आज मिल रही है वो काफी पहले मिल जानी चाहिए थी जबकी वो सत्या, शूल (1999) ,दिल पे मत ले यार 2000, ज़ुबैदा , अक्स 2001 रोड 2002, पिंजर 2003 ,वीर ज़ारा 2004, राजनीति 2010 जैसी फिल्मो में... एक के बाद एक. बेहतरीन पर्फोर्मंसस देते रहे हैं और जिसके लिए उन्हें कई बड़े - छोटे अवार्ड से लगातार नवाज़ा जाता रहा है।
हिंदी फिल्मों में लीक से हट कर बेहेतरीन किरदार निभाने वाले मनोज बाजपाई को वो तवज्जो नहीं दी गयी जो उन्हें देनी चाहिए थी . देश - विदेश में धूम मचाने वाली उनकी फिल्म गैंग ऑफ़ वासेपुर जैसी क़ामयाब फिल्म देने के बाद जब वो Wills Indian Fashion Week में रैंप पर चले तो हर कोई उन्हें अपने कैमरे में कैद करने को बेताब हो रहे था जबकि एक वक़्त वो था की जब वो मुंबई में ऐसिड फैक्ट्री के लिए, और दिल्ली में फिल्म जेल के लियें रैंप पर चले थे तब न तो किसी ने उन्हें नोटिस किया और न ही किसी ने किसी ने उन्हें क्लिक करना चाहा था।
लेकिन कुछ लोग पैदाइशी एक्टर होते हैं जिन्हें कामयाबी के आसमान पर चमकने से कोई नहीं रोक सकता . मनोज बाजपाई ऐसे ही लोगो में से एक हैं . दिल्ली के नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा से चार बार रिजेक्ट होने के बाद उन्होंने बेरी ड्रामा ऑफ स्कूल में बेरी जॉन के साथ थियेटर किया .... जहां सुपर स्टार शाहरुख़ खान उनके क्लास मेट थे . खुद के टैलेंट पर यक़ीन रखने वाले मनोज बाजपाई को बेरी जॉन ने हमेशा एक बेहतर एक्टर और बेहतरीन शागिर्द क़रार दिया था .
अपने करियर में उन्हें, फ़िल्मी दुनिया की कई कड़वी हक़ीक़तो का सामना करना पड़ा जहां उन्हें ये पता चला की अवार्ड परफॉरमेंस के लिए नहीं बल्कि रसूक वाले लीडिंग एक्टर्स को, जीताने के लिए भी दिए जाते है . एक बार उन्हें बेस्ट एक्टर अवार्ड के लिए चुना गया था, उसमे एक दूसरे लीडिंग एक्टर का नॉमिनेशन भी था .जूरी ने एक तरफ़ा फैसला सुनाते हुए उनसे कहा ......"की आपको तो पता है की विनर कैसे चुना गया है। मनोज आप विनर नहीं हो ..... और जूरी ने ये तय किया है की अवार्ड मेन स्ट्रीम के उसी एक्टर को दिया जायेगा . क्योकि उसे पहली बार एक्टिंग के लिए अवार्ड मिल रहा है....इसलिए उसे ये मौक़ा दिया जाना चाहिए, उसने इस फिल्म में बड़ी मेहनत से काम किया है . मनोज तो एक्टर है , एक्टिंग करेगा ही .....आज नहीं तो कल उसे अवार्ड मिल ही जायेगा " इस वाक़ये ने उनके अवार्ड लेने की ख़ुशी को कही न कही कम ज़रूर कर दिया .
इसी तरह सालों पहले, उनकी फिल्म, सत्या को ऑस्कार अवार्ड में न भेज कर जींस जैसी फिल्म को ऑस्कर के लिए नॉमिनेशन दे दिया गया था, इसलिए अब, जब उनकी फिल्म गैंग ऑफ़ वासेपुर के ऑस्कर अवार्ड्स के लिए nominate किये जाने की ख़बरे ज़ोरों पर हैं तब वो कोई ख़ास उम्मीद नहीं रख रहे हैं।
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बिहार के छोटे से ग़ाव बेलवा से ताल्लुक़ रखने वाले इस बेमिसाल एक्टर ने अपनी शुरू वाती दौर की पढ़ाई बेतिया के, के . आर कॉलेज से पूरी की और फिर दिल्ली के रामजस कॉलेज से इतिहास में ग्रेजुएशन करके कुछ वक़्त के लिए दिल्ली के सलाम बालक ट्रस्ट में पढाया। फिल्मो में अपने करियर के शुरुवाती दौर में उन्होंने फिल्म द्रोह काल और बेंडिट क्वीन(1994 ) में छोटे छोटे रोल किये .1996 में वो फिल्म दस्तक में मुकुल देव और सुष्मिता सेन के साथ एक छोटे से रोल में नज़र आये .फिल्म सत्या के बाद वो कामयाबी की सीढियां चढ़ते चले गए। आज मनोज बाजपाई की फिल्मो को न सिर्फ अपने देश में बल्कि विदेश में भी बेहद तारीफ और शोहरत मिल रही है..... जो इंशाल्लाह आगे भी जारी रहेगी

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अगर आपके स्कूल - कॉलेज टाइम की आपकी favourite टीचर आपके घर आ जाएं और आपके साथ कुछ घंटे गुज़ारे तो आप कैसा महसूस करेंगे .... ? बहुत excited, बहुत ख़ुशी महसूस करेंगे न ,कुछ ऐसा ही बीते सन्डे में मैंने महसूस किया था ।
उनकी जिंदिगी का एक पहलु ये भी है की वो इंसानियत के नाते हमेशा दूसरो की मदद करने को तैयार रहती थी। इंसानियत की एक मिसाल उन्होंने तब क़ायम की, जब उन्होंने Muscular Dystrophy जैसी बीमारी ,(जिसमे मरीज़ हिलडुल भी नहीं पाता) की एक Patient पदमा अग्रवाल की लम्बे वक़्त तक ख़िदमत की और उनका ख़याल रखा. उनके दर्द को कम करने और उनका हक़ दिलवाने के लिए न जाने कितने लोगो से लड़ी , दुश्मनी मोल ली ... लेकिन पीछे नहीं हटी.
वसु दीदी ने पदमा दीदी को कमरे की चार दिवारी से निकाला, और उन्हें हरे - भरे पार्क की सैर से लेकर पहाड़ो तक की सैर करवायी. वसु दीदी ने उन्हें ख़ुश रखने और उनके होटो पर मुस्कराहट लाने की हर मुमकिन कोशिश की .जिसमे वो कामयाम रही .
वसु दीदी ने ही मेरी मुलाक़ात पदमा दीदी से करवाई थी,जो उम्र में मुझसे काफी बड़ी थी, मेरा मानना है की दोस्ती के लिए उम्र नहीं बल्कि सोच और ख़याल मिलना ज़रूरी होता है. पदमा दीदी मेरी मुलाक़ात कब दोस्ती के गहरे रिश्ते में बदल गयी मुझे पता ही नहीं चला , पद्मा दीदी का दर्द मुझे भी बहुत दुःख देता था ... और मैं दिल से उनके लिए कुछ करना चाहती थी। यहाँ मेरे मम्मी - डैडी से, विरासत में मिली इंसानियत और वसु - दीदी की Inspiration ने मेरे हौसले बुलंद किये .... जिसकी वजह से मैं भी पदमा दीदी की थोड़ी बहुत ख़िदमत कर सकी.
पदमा दीदी की बारे में क्या बताऊ , बस इतना ही कह सकती हूँ की उन जैसे लोग ख़ुदा बहुत कम ही बनाता है ,उनकी Death से एक दिन पहले ही मैं उनसे मुलाक़ात करने गयी थी और अगले दिन ही पता चला था की वो इस दुनिया से चली गयी हैं . उनका नाम आते ही आज भी आखें नम हो जाती है . उनसे वो आख़री मुलाक़ात और उनके प्यार का अहसास आज भी मेरे साथ है .
इसके बाद जब वसु दीदी पहली बार हमारे घर आयी थी , उससे जुडी ख़ूबसूरत याद आज भी मेरे ज़हन में ताज़ा है , उन्हें अपने घर में देखकर मेरी ये समझ में नहीं आ रहा था की उन्हें कहां उठाऊ .... कहाँ बिठाऊ . जब वो मेरे मम्मी - डैडी से मिली तो उन्हें और भी ज़्यादा अच्छा लगा और फिर हमारे घरेलु ताल्लुक़ात हो गए थे और हम अक्सर एक दुसरे के घर आने -जाने लगे ,इसके बाद हम सब अपनी- अपनी ज़िन्दिगियो में मसरूफ होते चले गए ... मैं अपनी पढ़ाई में .... और वसु दीदी कामयाबी की ऊचाईयों को छूती चली गयी, इंटर कॉलेज की टीचर से वो प्रिंसिपल बनी प्रिंसिपल से District Inspector Of School बनी और फिर लखनऊ में Deputy Director in Education की पोस्ट को बाख़ूबी संभाला और जुलाई 2011 को Deputy Director की पोस्ट से रिटायर हुई .
"अभी ना जाओ छोड़ कर,

एक एक्टर बनने के लिए,उन्होंने अपने अंकल के साथ ,इंग लैंड तक का सफ़र सड़क के रास्ते,अफगानिस्तान और इरान होते हुए तय किया था .
जोहरा ने अपने लम्बे करियर में Indian People's Theatre और प्रथ्वी राज थिएटर के साथ 14 साल तक काम किया,और आठ साल तक अपने गुरु उदय शंकर से डांस क्लासेस ली.फिल्मो में उनका करियर धरती के लाल से शुरू हुआ ....Bhaji on the beach (1992) हम दिल दे चुके सनम , Bend it like Beckham (2002),दिल से ...(1998),चीनी कम और सावरियां उनकी यादगार फिल्में हैं
इसके अलावा छोटे परदे पर The Jewel in the crown,(1984),Tandoori Nights (1985-87),Amma & Family(1996) जैसे मशहूर टी वी सीरियल स में भी अपने काम से लोगो के दिलो पर अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रही.
जोहरा नास्तिक ख़यालात की रही है.ख़ुदा में यकीन न रखने वाली जोहरा ने जब मजहब और जात -पात से ऊपर उठ कर अपने से 8 साल जूनियर .... 'साइंटिस्ट ,डांसर और पेंटर' कामेश्वर नाथ सहगल से शादी का फैसला किया तो शुरू में माँ - बाप की रज़ा मंदी नहीं मिली लेकिन कुछ वक़्त के बाद वो मान गए और उन्होंने शादी की इज़ाज़त दे दी. 14 अगस्त 1942 को उन्होंने कामेश्वर नाथ सहगल से शादी कर ली .उनकी शादी के reception में पंडित जवाहर लाल नेहरु भी शामिल होने वाले थे लेकिन उन्ही दिनों 'भारत छोड़ो आन्दोलन' में महात्मा गाँधी का साथ देने की वजह से उन्हें कुछ दिनों के लिए गिरफ्तार कर लिया और वो जोहरा की शादी में शामिल नही हो सके थे .

जोहरा की शख़्सियत शुरू से ही रोबदार और दूसरो पर धोंस जमाने वाली, थी.1945 में जब वो और उनकी बहन उज़रा साथ -साथ प्रथ्वी थियेटर में काम कर रही थी तो वो अक्सर ओपरा हाउस का एक कोना पकड़ लिया करती .... और फिर किसी की मजाल ....की कोई उनका छोटा सा भी मेंकअप का सामान ले सके.... यहाँ तक की छोटी बहन उज़रा भी नहीं ... हालांकि,सब उनकी बेहद इज्ज़त करते थे और उनका मुकाम बहुत ऊंचा था फिर भी उन्हें .... ये लगता था की उज़रा बेहद गोरी और हसीन है इसलिए सब उसे ज्यादा प्यार करते है.
वो खूबसूरत दिखने और लोगो का ध्यान अपनी तरफ खींचने के लिए काफी मशक्कत करती.....और उनकी ये चाहत आज भी बरक़रार है .
"आज भी वो एक ऐसी खूबसूरत औरत दिखने की ख़्वाहिश अपने दिल में रखती है.जो अंग्रेजो की तरह बेहद गोरी हो और जिसकी आखों का रंग नीला हो ."
उनकी जिंदिगी तब थम सी गयी, जब 1959 में उनके शोहर कामेश्वर सहगल ने, हमेशा के लिए अपनी आँखें बंद कर ली ...और बेटी किरण सहगल और बेटा पवन सहगल की ज़िम्मेदारी अकेली जोहरा सहगल पर आ गयी.अपनी इस ज़िम्मेदारी को भी उन्होंने बखूबी निभाया और बच्चो की बेहेतरीन परवरिश की .

जिंदिगी के उतार - चढाव उन्हें कभी हरा नहीं पाए उन्होंने .... अपने अंदर की आग को जलाये रखा .... बस आगे चलती गयी ... कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा ,अपनी Creativity को बरक़रार रखते हुए हमेशा कुछ नया ... कुछ अच्छा करती गयी .जिसके लिए उन्हें अब तक पद्म श्री(1998),काली दास सम्मान ,(2001) जैसे बड़े खिताबो से नवाज़ा जा चुका है.2004 में संगीत नाटक अकादमी से उन्हें Life time achievements के लिए fellow ship दी गयी और 2010 में पदम् विभूषण सम्मान दिया गया.
जोहरा सहगल की बेटी किरण सहगल ने अपनी माँ की 100 वी साल गिरह पर पहली Biography "जोहरा सहगल फैटी" निकाली है जिसमे उन्होंने जोहरा सहगल की जिंदिगी के अन छुये पहलुओं पर रौशनी डाली है और ख़ास तौर पर "फैटी "लव्ज़ इसलिए इस्तेमाल किया है क्योंकि उनकी माँ अपने वज़न को लेकर आज भी ऐसे ही ऐतिहात बरतती हैं ..... जैसे 16 साल की लड़की ... हर हफ्ते अपना वज़न तौलने वाली जोहरा सहगल को अगर ज़रा सा भी अपना वज़न बढ़ा हुआ लगता है,तो वो फौर न अपनी diet कम कर देती हैं और दो टोस्ट के बजाये एक टोस्ट ही लेना पसंद करती है.
जोहरा सहगल वक़्त की बड़ी पाबंद हैं और अपनी घडी को पांच मिनट आगे रखती हैं .....शायद इसी लिए वो वक़्त से कही आगे हैं, उन्होंने उम्र को अपने ऊपर कभी हावी नहीं होने दिया.... और आज भी मस्ती में गुनगुनाती हैं .. "अभी तो मैं जवान हूँ ...अभी तो मैं जवान हूँ "
अरशिया ज़ैदी

विद्या बालन की ताज़ा- तरीन फिल्म "कहानी "आज कल बड़ी सुर्खियों में है. हर कोई फिल्म के डारेक्टर सुजोय घोष के Direction और विद्या बालन की बेहतरीन अदाकारी की तारीफ कर रहा है.
'घर के सामने महागुन माल में ही तो जाना है....5 मिनट में पहुच जायेंगे...'. ये सोच कर इत्मिनान से खाना -वाना खा के निकले,जब हम जब PVR Cinema पहुचे तो फिल्म शुरू हुए 5 मिनट हो चुके थे ... मूड तो वही ऑफ हो गया था क्योकि फिल्म का एक सीन भी छूटे ये हमें गवारा नहीं... खैर अपनी झुन्ज्लाहट पे क़ाबू करते हम आगे बढ़ने लगे.

सुजोय घोष ने कोलकाता की तंग गलियों में एक बेहेतरीन फिल्म शूट करके ये बता दिया है की एक अच्छी फिल्म को बनाने के लिए फिल्म की दमदार कहानी के साथ अच्छा direction भी ज़रूरी है.ज़रूरी नहीं है की फिल्म का बजट आसमान को छुए,फिल्म की शूटिंग विदेशो की हसीन लोकेशन पर ही हो,या फिल्म में ज्यादा से ज्यादा गाने डाल कर दर्शको को रिझाने की नाकाम कोशिश की जाएँ .
विद्या बालन अपनी ज्यादा तर फिल्मो में अलग-अलग तरह के यादगार किरदारों को निभाती रही है .परिणीता,लगे रहो मुन्ना भाई, नो वन किल्ड जेसिका,गुरु ,पा,इश्किया, द डर्टी पिक्चर ,या हाल में आयी उनकी नई फिल्म कहानी इसकी मिसाल है. हर फिल्म में उन्होंने एक से बढ़ कर एक Performances दी हैं और हर फिल्म में कुछ नया करके दिखाया है.
रेखा और विद्या बालन जब एक साथ दिखाई देती है,तो दोनों की शख्सियत काफी हद तक एक-दुसरे से मिलती-जुलती नज़र आती है फिर चाहे वो इन दोनों के Indian looks हो,कांजीवरम साड़ी पहेनने का शौक़ हो या फिर,हो इनकी......boldness.विद्या बालन का कहना है की वो रेखा से बेहद inspired है,जब कोई उन्हें रेखा से मिलाता है तो ये उनके लिए सबसे बड़ा Compliment होता है.

स्क्रीन अवार्ड्स 2012 में जब रेखा ने विद्या बालन की सुपर हिट फिल्म Dirty Picture के मशहूर गाने ऊ ला ला.... ऊ ला ला पे ...अपने बेहेतरीन डांस की झ लक दिखाई और एक साथ स्टेज शेयर किया तो ऐसा लगा की ख़ूबसूरत रेखा की बे मिसाल विरासत को अगर कोई आगे लेकर जा सकता है तो वो है विद्या बालन और सिर्फ ......विद्या बालन
अरशिया ज़ैदी
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एक्टर मनोज बाजपाई की एक्टिंग की मैं तब से फैन रही हूँ जब से मैंने उन्हें महेश भट्ट के टी-वी सीरियल स्वाभिमान में सुनील का किरदार निभाते हुए देखा था , हमेशा से एक अलग छाप छोड़ी है उन्होंने , अपने निभाए हर किरदार में, आज उनकी फिल्मे .... गैंग ऑफ़ वासेपुर और चक्रविहू देश विदेश में खूब तारीफें बटोर रही हैं .
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हिंदी फिल्मों में लीक से हट कर बेहेतरीन किरदार निभाने वाले मनोज बाजपाई को वो तवज्जो नहीं दी गयी जो उन्हें देनी चाहिए थी . देश - विदेश में धूम मचाने वाली उनकी फिल्म गैंग ऑफ़ वासेपुर जैसी क़ामयाब फिल्म देने के बाद जब वो Wills Indian Fashion Week में रैंप पर चले तो हर कोई उन्हें अपने कैमरे में कैद करने को बेताब हो रहे था जबकि एक वक़्त वो था की जब वो मुंबई में ऐसिड फैक्ट्री के लिए, और दिल्ली में फिल्म जेल के लियें रैंप पर चले थे तब न तो किसी ने उन्हें नोटिस किया और न ही किसी ने किसी ने उन्हें क्लिक करना चाहा था।
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अपने करियर में उन्हें, फ़िल्मी दुनिया की कई कड़वी हक़ीक़तो का सामना करना पड़ा जहां उन्हें ये पता चला की अवार्ड परफॉरमेंस के लिए नहीं बल्कि रसूक वाले लीडिंग एक्टर्स को, जीताने के लिए भी दिए जाते है . एक बार उन्हें बेस्ट एक्टर अवार्ड के लिए चुना गया था, उसमे एक दूसरे लीडिंग एक्टर का नॉमिनेशन भी था .जूरी ने एक तरफ़ा फैसला सुनाते हुए उनसे कहा ......"की आपको तो पता है की विनर कैसे चुना गया है। मनोज आप विनर नहीं हो ..... और जूरी ने ये तय किया है की अवार्ड मेन स्ट्रीम के उसी एक्टर को दिया जायेगा . क्योकि उसे पहली बार एक्टिंग के लिए अवार्ड मिल रहा है....इसलिए उसे ये मौक़ा दिया जाना चाहिए, उसने इस फिल्म में बड़ी मेहनत से काम किया है . मनोज तो एक्टर है , एक्टिंग करेगा ही .....आज नहीं तो कल उसे अवार्ड मिल ही जायेगा " इस वाक़ये ने उनके अवार्ड लेने की ख़ुशी को कही न कही कम ज़रूर कर दिया .
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मनोज बाजपाई ने अपनी पहली शादी नाकाम होने के बाद 2005 में फिल्म एक्ट्रेस नेहा उर्फ़ शबाना रज़ा को अपनी जिंदिगी का हमसफ़र बनाया, जिनके साथ वो खुश हाल शादी शुदा जिंदिगी बिता रहे है। अब वो एक नन्ही सी परी के पापा भी हैं जिसे यकीनन अपने एक्टर पापा पर नाज़ रहेगा ..... हमेशा ... हमेशा !!!
अरशिया ज़ैदी
अरशिया ज़ैदी
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एक दिन अपनी टीचर के साथ
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A day with my Teacher |
पता है आपको , बीते सन्डे मैं मेरे कॉलेज टाइम की favorite टीचर और मेरी रहनुमा मिसेज़ वसुमती अग्निहोत्री अपने बच्चों के साथ हमारे घर आयी थीं . तक़रीबन 10-15 साल के बाद मैं उनसे मिल रही थी ..... बहुत खुश थी मैं .
उनसे मेरा रिश्ता तब का है जब मैं 11th क्लास में पढ़ती थी और वो हमारी हिस्टरी टीचर थी . उन्हें हम वसु दीदी कहते थे क्योंकि हमारे कॉलेज में टीचर को दीदी बुलाया जाता था .
एक सुलझी हुए सोच , निडर और बिंदास अंदाज़ और हमेशा अपने स्टुडेंट्स को सुनने -समझने और मदद करने को तैयार रहने वाली रौबदार शक्सियत रही हैं वसु दीदी । उन्हें शेरो -शायरी का भी शौक़ था , गाती भी अच्छा थी, इसलिए कॉलेज में होने वाली Extra Curricular Activities में उनकी सुरीली आवाज़ में गीत और गज़ले भी सुनने को मिलते थे।
वो अपने स्टुडेंट्स का बहुत ख़याल रखती थी ,बात उन दिनों की है जब हमारे 12th के बोर्ड के इम्तिहान हो रहे थे ..... मैं इम्तिहान दे रही थी .... और मुझे ठण्ड लग रही थी .... वसु दीदी क्लास में स्टुडेंट्स को चेक करने आयी थी, उन्होंने मुझे देखा ...और बिना कुछ कहे अपनी शाल उड़ा दी. हॉल में बैठी बाक़ी लडकियाँ तिरछी निगाहो से मेरी तरफ देखने लगी थी . क्योकि वसु दीदी की रौबदार शक्सियत से लड़कियां जल्दी उनसे बात करने में झिझकती थी . मुझे भी अपनी पसंददीदा टीचर से मिला ये प्यार और अहमियत बहुत अच्छी लग रही थी और इस वाक़ये के बाद मैं जज़्बाती तौर पर उनसे जुड़ने लगी थी .
उनकी जिंदिगी का एक पहलु ये भी है की वो इंसानियत के नाते हमेशा दूसरो की मदद करने को तैयार रहती थी। इंसानियत की एक मिसाल उन्होंने तब क़ायम की, जब उन्होंने Muscular Dystrophy जैसी बीमारी ,(जिसमे मरीज़ हिलडुल भी नहीं पाता) की एक Patient पदमा अग्रवाल की लम्बे वक़्त तक ख़िदमत की और उनका ख़याल रखा. उनके दर्द को कम करने और उनका हक़ दिलवाने के लिए न जाने कितने लोगो से लड़ी , दुश्मनी मोल ली ... लेकिन पीछे नहीं हटी.
वसु दीदी ने पदमा दीदी को कमरे की चार दिवारी से निकाला, और उन्हें हरे - भरे पार्क की सैर से लेकर पहाड़ो तक की सैर करवायी. वसु दीदी ने उन्हें ख़ुश रखने और उनके होटो पर मुस्कराहट लाने की हर मुमकिन कोशिश की .जिसमे वो कामयाम रही .
वसु दीदी ने ही मेरी मुलाक़ात पदमा दीदी से करवाई थी,जो उम्र में मुझसे काफी बड़ी थी, मेरा मानना है की दोस्ती के लिए उम्र नहीं बल्कि सोच और ख़याल मिलना ज़रूरी होता है. पदमा दीदी मेरी मुलाक़ात कब दोस्ती के गहरे रिश्ते में बदल गयी मुझे पता ही नहीं चला , पद्मा दीदी का दर्द मुझे भी बहुत दुःख देता था ... और मैं दिल से उनके लिए कुछ करना चाहती थी। यहाँ मेरे मम्मी - डैडी से, विरासत में मिली इंसानियत और वसु - दीदी की Inspiration ने मेरे हौसले बुलंद किये .... जिसकी वजह से मैं भी पदमा दीदी की थोड़ी बहुत ख़िदमत कर सकी.
पदमा दीदी की बारे में क्या बताऊ , बस इतना ही कह सकती हूँ की उन जैसे लोग ख़ुदा बहुत कम ही बनाता है ,उनकी Death से एक दिन पहले ही मैं उनसे मुलाक़ात करने गयी थी और अगले दिन ही पता चला था की वो इस दुनिया से चली गयी हैं . उनका नाम आते ही आज भी आखें नम हो जाती है . उनसे वो आख़री मुलाक़ात और उनके प्यार का अहसास आज भी मेरे साथ है .
इसके बाद जब वसु दीदी पहली बार हमारे घर आयी थी , उससे जुडी ख़ूबसूरत याद आज भी मेरे ज़हन में ताज़ा है , उन्हें अपने घर में देखकर मेरी ये समझ में नहीं आ रहा था की उन्हें कहां उठाऊ .... कहाँ बिठाऊ . जब वो मेरे मम्मी - डैडी से मिली तो उन्हें और भी ज़्यादा अच्छा लगा और फिर हमारे घरेलु ताल्लुक़ात हो गए थे और हम अक्सर एक दुसरे के घर आने -जाने लगे ,इसके बाद हम सब अपनी- अपनी ज़िन्दिगियो में मसरूफ होते चले गए ... मैं अपनी पढ़ाई में .... और वसु दीदी कामयाबी की ऊचाईयों को छूती चली गयी, इंटर कॉलेज की टीचर से वो प्रिंसिपल बनी प्रिंसिपल से District Inspector Of School बनी और फिर लखनऊ में Deputy Director in Education की पोस्ट को बाख़ूबी संभाला और जुलाई 2011 को Deputy Director की पोस्ट से रिटायर हुई .
इतने लम्बे अरसे के बाद हम मिल रहे थे ..... यक़ीन जानिये ,मिल कर ये बिल्कुल भी नहीं लगा की जैसे हमें 15 साल के बाद मिल रहे हैं । वसु दीदी आयी..... आराम से बैठी, अपनी तजुर्बेकार नज़रों से हमारे चहेरों को पढ़ती रही ---- प्यार से मुस्कुराती रही . वो लखनऊ से मशहूर चिकन के कुर्तो के रूप में , हम सब के लिए अपना प्यार समेट कर लाई थी जो हम सब को पसंद आया , और हमने सर झुका कर क़ुबूल किया . उनके बच्चे और मेरा भाई शैली (अली ) और मेरी बहन सिम्मी (हिना), हम सभी एक- दुसरे से मिल कर बेहद खुश थे.
मैंने उनके लिए अच्छा सा लंच तैयार किया जिसे हम सब ने साथ खाया खाने के बाद गरमा - गरम चाय और शेरो -शायरी का भी दौर चला जिसे देख कर पुराने दिनों की यादें ताज़ा हो गयी बातो - बातो में ये पता ही नहीं चला कब तीन घंटे बीत गए ..... फिछले कई सालो का स्टॉक था .... बातो का ... इसलिए दिल किसी का भी नहीं भरा था न उन लोगो का .... न ही हमारा ....फिर भी उन्हें जाना था इसलिए फिर मिलने का वायदा करके भारी दिल से उन्हें खुदा हाफ़िज़ कहा .
कुछ रिश्ते ऐसे होते है जिनमे बेहद अपना पन होता है जहां आपकी सोच और ख़याल इतने मिलते होते है, की आपको किसी तसन्नो , किसी बनावट या किसी शो ऑफ की ज़रुरत नहीं होती, कुछ समझाने की ज़रूरत नहीं होती, बिना कहे बाते समझ ली जाती हैं .
कुछ रिश्ते ऐसे होते है जिनमे बेहद अपना पन होता है जहां आपकी सोच और ख़याल इतने मिलते होते है, की आपको किसी तसन्नो , किसी बनावट या किसी शो ऑफ की ज़रुरत नहीं होती, कुछ समझाने की ज़रूरत नहीं होती, बिना कहे बाते समझ ली जाती हैं .
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A day with my Teacher |
तब ....उस रिश्ते की अहमियत और भी ज्यादा बढ़ जाती है जब रिश्ता एक " टीचर और एक स्टुडेंट" का हो मै उन ख़ुशकिस्मत स्टुडेंट्स में से एक हूँ .जिसे अपनी टीचर मिसेज़ वसुमती अग्निहोत्री के रूप में एक ऐसा गाइड मिला है , जिन्होंने एक रहनुमा बन कर मुझे हमेशा सही रास्ता दिखाया और आगे बढ़ने का हौसला दिया
अरशिया ज़ैदी
अरशिया ज़ैदी
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100 साल की जवान ......जोहरा सहगल
"अभी ना जाओ छोड़ कर,
के दिल अभी भरा नहीं .....
27 अप्रैल 1912 को उत्तर प्रदेश के रामपुर जिले में पैदा हुई और सहारन पुर के रूहेला पठान ज़मीदार खानदान से ताल्लुक़ रखने वाली जोहरा सहगल बीती 27 अप्रैल को 100 साल की हो गयी.उनका ज़िक्र आते ही ऐसी खुश मिज़ाज,अल्ल्हड़ , नटखट और बिंदास बुज़ुर्ग अदा कारा का चेहरा सामने आता है जो अपनी बेमिसाल एक्टिंग के लिए तो जानी ही जाती है.... साथ ही जानी जाती है जिंदिगी के लिए अपने जोश और प्यार के लिए .


जोहरा ने अपने लम्बे करियर में Indian People's Theatre और प्रथ्वी राज थिएटर के साथ 14 साल तक काम किया,और आठ साल तक अपने गुरु उदय शंकर से डांस क्लासेस ली.फिल्मो में उनका करियर धरती के लाल से शुरू हुआ ....Bhaji on the beach (1992) हम दिल दे चुके सनम , Bend it like Beckham (2002),दिल से ...(1998),चीनी कम और सावरियां उनकी यादगार फिल्में हैं
इसके अलावा छोटे परदे पर The Jewel in the crown,(1984),Tandoori Nights (1985-87),Amma & Family(1996) जैसे मशहूर टी वी सीरियल स में भी अपने काम से लोगो के दिलो पर अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रही.
जोहरा नास्तिक ख़यालात की रही है.ख़ुदा में यकीन न रखने वाली जोहरा ने जब मजहब और जात -पात से ऊपर उठ कर अपने से 8 साल जूनियर .... 'साइंटिस्ट ,डांसर और पेंटर' कामेश्वर नाथ सहगल से शादी का फैसला किया तो शुरू में माँ - बाप की रज़ा मंदी नहीं मिली लेकिन कुछ वक़्त के बाद वो मान गए और उन्होंने शादी की इज़ाज़त दे दी. 14 अगस्त 1942 को उन्होंने कामेश्वर नाथ सहगल से शादी कर ली .उनकी शादी के reception में पंडित जवाहर लाल नेहरु भी शामिल होने वाले थे लेकिन उन्ही दिनों 'भारत छोड़ो आन्दोलन' में महात्मा गाँधी का साथ देने की वजह से उन्हें कुछ दिनों के लिए गिरफ्तार कर लिया और वो जोहरा की शादी में शामिल नही हो सके थे .

जोहरा की शख़्सियत शुरू से ही रोबदार और दूसरो पर धोंस जमाने वाली, थी.1945 में जब वो और उनकी बहन उज़रा साथ -साथ प्रथ्वी थियेटर में काम कर रही थी तो वो अक्सर ओपरा हाउस का एक कोना पकड़ लिया करती .... और फिर किसी की मजाल ....की कोई उनका छोटा सा भी मेंकअप का सामान ले सके.... यहाँ तक की छोटी बहन उज़रा भी नहीं ... हालांकि,सब उनकी बेहद इज्ज़त करते थे और उनका मुकाम बहुत ऊंचा था फिर भी उन्हें .... ये लगता था की उज़रा बेहद गोरी और हसीन है इसलिए सब उसे ज्यादा प्यार करते है.

"आज भी वो एक ऐसी खूबसूरत औरत दिखने की ख़्वाहिश अपने दिल में रखती है.जो अंग्रेजो की तरह बेहद गोरी हो और जिसकी आखों का रंग नीला हो ."
उनकी जिंदिगी तब थम सी गयी, जब 1959 में उनके शोहर कामेश्वर सहगल ने, हमेशा के लिए अपनी आँखें बंद कर ली ...और बेटी किरण सहगल और बेटा पवन सहगल की ज़िम्मेदारी अकेली जोहरा सहगल पर आ गयी.अपनी इस ज़िम्मेदारी को भी उन्होंने बखूबी निभाया और बच्चो की बेहेतरीन परवरिश की .

जिंदिगी के उतार - चढाव उन्हें कभी हरा नहीं पाए उन्होंने .... अपने अंदर की आग को जलाये रखा .... बस आगे चलती गयी ... कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा ,अपनी Creativity को बरक़रार रखते हुए हमेशा कुछ नया ... कुछ अच्छा करती गयी .जिसके लिए उन्हें अब तक पद्म श्री(1998),काली दास सम्मान ,(2001) जैसे बड़े खिताबो से नवाज़ा जा चुका है.2004 में संगीत नाटक अकादमी से उन्हें Life time achievements के लिए fellow ship दी गयी और 2010 में पदम् विभूषण सम्मान दिया गया.
जोहरा सहगल की बेटी किरण सहगल ने अपनी माँ की 100 वी साल गिरह पर पहली Biography "जोहरा सहगल फैटी" निकाली है जिसमे उन्होंने जोहरा सहगल की जिंदिगी के अन छुये पहलुओं पर रौशनी डाली है और ख़ास तौर पर "फैटी "लव्ज़ इसलिए इस्तेमाल किया है क्योंकि उनकी माँ अपने वज़न को लेकर आज भी ऐसे ही ऐतिहात बरतती हैं ..... जैसे 16 साल की लड़की ... हर हफ्ते अपना वज़न तौलने वाली जोहरा सहगल को अगर ज़रा सा भी अपना वज़न बढ़ा हुआ लगता है,तो वो फौर न अपनी diet कम कर देती हैं और दो टोस्ट के बजाये एक टोस्ट ही लेना पसंद करती है.
जोहरा सहगल वक़्त की बड़ी पाबंद हैं और अपनी घडी को पांच मिनट आगे रखती हैं .....शायद इसी लिए वो वक़्त से कही आगे हैं, उन्होंने उम्र को अपने ऊपर कभी हावी नहीं होने दिया.... और आज भी मस्ती में गुनगुनाती हैं .. "अभी तो मैं जवान हूँ ...अभी तो मैं जवान हूँ "
अरशिया ज़ैदी
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मेरी Inspiration रेखा .....विद्या बालन
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Vidhya Baalan |

विद्या बालन की ताज़ा- तरीन फिल्म "कहानी "आज कल बड़ी सुर्खियों में है. हर कोई फिल्म के डारेक्टर सुजोय घोष के Direction और विद्या बालन की बेहतरीन अदाकारी की तारीफ कर रहा है.
हम भी काफी दिनों से विद्या बालन की फिल्म कहानी की तारीफ सुन रहे थे इसलिए ऑफिस से आने के बाद प्रोग्राम बना लिया Night Show जाने का.
'घर के सामने महागुन माल में ही तो जाना है....5 मिनट में पहुच जायेंगे...'. ये सोच कर इत्मिनान से खाना -वाना खा के निकले,जब हम जब PVR Cinema पहुचे तो फिल्म शुरू हुए 5 मिनट हो चुके थे ... मूड तो वही ऑफ हो गया था क्योकि फिल्म का एक सीन भी छूटे ये हमें गवारा नहीं... खैर अपनी झुन्ज्लाहट पे क़ाबू करते हम आगे बढ़ने लगे.
सुजय घोष की फिल्म कहानी शुरू से ही काफी दिलचस्प लग रही थी ....7 month pregnant विद्या बागची ( विधा बालन) अपने खोये पति को लन्दन से इंडिया आकर ढूँढ रही थी. इस suspense thriller देखने के लिए हम इतने excited थे की सिनेमा हॉल की सीढियां चढ़ते हुए भी अँधेरे में स्क्रीन पर अपनी आखें गडाए हुए थे.

सुजोय घोष ने कोलकाता की तंग गलियों में एक बेहेतरीन फिल्म शूट करके ये बता दिया है की एक अच्छी फिल्म को बनाने के लिए फिल्म की दमदार कहानी के साथ अच्छा direction भी ज़रूरी है.ज़रूरी नहीं है की फिल्म का बजट आसमान को छुए,फिल्म की शूटिंग विदेशो की हसीन लोकेशन पर ही हो,या फिल्म में ज्यादा से ज्यादा गाने डाल कर दर्शको को रिझाने की नाकाम कोशिश की जाएँ .
विद्या बालन अपनी ज्यादा तर फिल्मो में अलग-अलग तरह के यादगार किरदारों को निभाती रही है .परिणीता,लगे रहो मुन्ना भाई, नो वन किल्ड जेसिका,गुरु ,पा,इश्किया, द डर्टी पिक्चर ,या हाल में आयी उनकी नई फिल्म कहानी इसकी मिसाल है. हर फिल्म में उन्होंने एक से बढ़ कर एक Performances दी हैं और हर फिल्म में कुछ नया करके दिखाया है.
रेखा और विद्या बालन जब एक साथ दिखाई देती है,तो दोनों की शख्सियत काफी हद तक एक-दुसरे से मिलती-जुलती नज़र आती है फिर चाहे वो इन दोनों के Indian looks हो,कांजीवरम साड़ी पहेनने का शौक़ हो या फिर,हो इनकी......boldness.विद्या बालन का कहना है की वो रेखा से बेहद inspired है,जब कोई उन्हें रेखा से मिलाता है तो ये उनके लिए सबसे बड़ा Compliment होता है.


अरशिया ज़ैदी
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